Sunday, December 15, 2013

ग्लोबल वार्मिंग और मेरी गली के कुत्ते!


ग्लोबल वार्मिंग का अपने राम पर अब तक कोई असर नई पड़ रिया था और अपने राम को उसका मतलब भी नई पता था| वो तो भला हो मेरी गली के खुजलाहे कुत्तों का कि उन्होंने हमारे दिमाग की बत्ती जला दी| असल में बरसात बीते करीब डेढ़ महिना होने को आया पर मेरी गली में कुत्तों की संसद अभी भी गुलजार है| रोज ही, सुबह देखी न शाम लगे पड़े हैं आम सभा करने में| गली की एकमात्र मरियल कुतिया बेचारी अपनी अस्मत की दुहाई देते देते थक गई है पर ये साले कुत्ते हैं की मानते नहीं| ऐसे में हमने अपने, सब जानता गमछा वाला पडोसी से कुत्तों की इस बेमौसम चिल्लपों का कारण पूछा तो बड़ी हिकारत से हमें देखते हुए उन्होंने इसका सारा इल्जाम ग्लोबल वार्मिंग पर डाल दिया| अब साहब ग्लोबल वार्मिंग का कुत्ता वार्मिंग से क्या नाता? पर बात कुछ कुछ समझ आने लगी| हर साल  इस समय तक ये  सारे कुत्ते  ठण्ड के मारे कहीं न कहीं दुबक जाते थे और ठण्ड से जान बचाने के चक्कर में उनका कुतिया प्रेम भी ठंडा पड़ जाता था, इस साल ठण्ड कुछ देर से आई है या शायद बहुत कम है और यहीं ग्लोबल वार्मिंग का रिश्ता कुत्तों से क्या है समझ आने लगा| अब साहब, अपने राम भी बाल की खाल निकालने को तैयार रहते हैं इसलिए इस विषय पर थोडा रिसर्च करने की ठान बैठे और निकल पड़े कुत्तों के पीछे|
अपने राम ने देखा की अलग अलग रंगों, ऊँचाइयों और पर्सनाल्टी वाले कुत्ते एक साथ एक कोने में एक साथ भौंक रहे हैं, एक साथ एक दूसरे को दांत दिखाते हुए,अपनी अपनी औकात दिखा रहे हैं, और एक अदद मरगिल्ली कुतिया पूंछ दबाये बीच बीच में गुर्रा कर उनको दूर ढकेल रही है| अजी ये सीन तो अपन ने कहीं देखा है, याद आया टीवी पे दिखा रहे थे एक दिन, लेकिन उसमें तो कुत्ते नई थे, आदमी दिख रहे थे| रोजई  तो दिखाते हेंगे न्यूज़ चैनल पर नेता लोगन को| एक दूसरे की धोती खींचते, गाली गलौज करते, एक कुर्सी की खातिर| खैर कुत्तों पर ध्यान केन्द्रित करने की सोच कर मैंने टीवी बंद कर दिया और लगा कुत्तों को देखने| करीब आधा दिन  मैं उन कुत्तों के पीछे लगा रहा और उस आधे दिन   में अलग अलग श्रेणियों के कुत्तों ने अलग अलग  कोने में उस बेचारी कुतिया की इज्जत लूटी, उन छः  घंटों में जैसे अपने राम सारे भारत का चक्कर लगा आये| अब तो अपन को घिन आने लगी और अपन ने घर वापस लौटने की ठान ली| घर आ कर  भी दिल में उस कुतिया के लिए अजीब सी सहानुभूति की लहर उठ रही थी| बड़ी कोशिश के बाद नींद आई और सुबह अपने राम अपने काम में लग गये और कुत्तों का ग्लोबल वार्मिंग से सम्बन्ध इस विषय पर रिसर्च ठन्डे बस्ते में चली गयी|  ठण्ड से याद आया इस साल ठण्ड वाकई देर से आई है|
करीब पांच महीने तक कुत्ते मेरे दिमाग से बाहर रहे और कुछ दूसरी कुत्ती चीजें मुझे व्यस्त रखने में कामयाब हुईं|
एक दिन जब मैं अपनी पत्नी की दिलाई कार से कहीं जाने के लिए घर से निकला तो अचानक एक कुत्ते के बच्चे की कुईं कुईं सुनाई दी, गाडी रोक कर देखा तो एक अदद कुत्ते का बच्चा मेरी गाडी के नीचे आते आते बचा है और अब अपनी माँ को याद कर के रो रहा है| अपने राम ने गाडी से उतर कर उस बच्चे को उठाया तो तीन चार रंगों के उस चितकबरे खूबसूरत बच्चे ने किकियाना बंद कर दिया(बच्चे खूबसूरत ही होते हैं, नई?)| उसे देख कर अनायास मुझे ग्लोबल वार्मिंग और कुत्तों पर अपनी अधूरी रिसर्च याद आ गयी|पूंछ हिलाती मेरी गली की वो मरियल कुतिया मेरे पास आ कर अपने बच्चे के लिए आँखों ही आँखों से मुझसे दया की भीक मांगने लगी| बच्चे को सहला कर मैंने उसे उसकी माँ के पास छोड़ दिया और गाडी में बैठ कर अपने गंतव्य की ओर निकल पड़ा| गाडी चलाते हुए भी वो बच्चा मेरी आँखों से ओझल नहीं हो रहा था और मुझे पांच महीने पहले का अपना वो भारत भ्रमण याद आने लगा| वो बच्चा उन अलग अलग श्रेणियों के कुत्तों की मिली जुली गैर नस्लवादी, गैर जातिवादी और गैर वर्ग वादी कोशिश का एक अदद नमूना था जिसका हश्र भी उसके अनगिनत बापों की तरह ही होना था| अब जब उन कुत्तों का बच्चा इस संसार में आ चुका  था तो वो सारे कुत्ते जैसे गधे के सर पर सींग की तरह गायब हो चुके थे| जैसे जन्म देने के बाद उनका कोई कर्तव्य ही नहीं और वो  किसी और जगह मुंह मारने को आजाद हैं| कोशिश करने पर भी मैं अपने को रोक नहीं पा रहा था इस सब का सम्बन्ध हम इंसानों से जोड़ने पर, मिली जुली कोशिश, मिलीजुली सरकार, खैर इस विचार को झटक कर मैंने गियर बदला |
मैंने देखा की कुतिया अब उस बच्चे को चाट पोंछ कर साफ़ करने की नामुमकिन कोशिश कर रही है और वो बच्चा मजे से भविष्य की चिंता किये बगैर अपनी माँ की गोद में आराम से सो रहा है|
उन खुजलाहे कुत्तों की मिली भगत का परिणाम एक अच्छी नस्ल को तो नहीं विकसित कर सकता और आने वाली नस्ल  भी उनकी तरह कोने कोने में अपनी औकात दिखाते ही नजर आएगी| मुझे लगा की मैं कुत्ते के उस छोटे बच्चे को अपने घर ले आऊँ और उसकी नस्ल में पनप रही गन्दगी और रोग को जड़ से उखाड़ फेंकूं, पर फिर  एक सच्चे भारतीय की तरह मैने अपने मन में सोचा मेरी बला से और एक्सलेटर दबा कर निकल पड़ा अपनी मंजिल पर|

अवी घाणेकर

१५.१२.२०१३

Wednesday, December 11, 2013

दिल्ली का दिल



दिल्ली के चुनाव परिणाम आने के बाद भी दिल्ली का दिल उदास है| बिखरा हुआ चुनाव परिणाम दिल्ली को असमंजस की स्थिति में डाले हुए है| आम आदमी पार्टी एक नए राजनितिक दल के तौर पर उभरा है और राष्ट्रीय दलों को नाकों चने चबवा रहा है| उसके २७ विधायक चुने जा चुके हैं पर पूर्ण बहुमत किसी भी पार्टी को नहीं मिला है| बी जे पी के ३२ विधायक हैं और वो सरकार बनाने से हिचक रही है| ऐसे में दिल्ली की जनता ठगा हुआ महसूस कर रही दिखती है| इसका कोई हल जल्द ही निकलना जरूरी है, पुनः चुनावों में उतरना इसका हल नहीं हो सकता ये निश्चित है, आखिर चुनाव  का खर्च तो जनता की गाढ़ी कमाई से ही होता है| इस सन्दर्भ में दोनों दलों को विचार करना चाहिए|हठधर्मिता छोड़ जनता की इच्छा का सम्मान करना चाहिए| क्या हो सकता है इस परिस्थिति में  इसका विचार करें तो मुझे एक बहुत आदर्श हल दिखाई पड़ता है|
बी जे पी और ‘आप’ इन दोनों को मिल कर सरकार का गठन करना दिल्ली को इस असमंजस से निकाल सकता है| ‘आप’ जिन मुद्दों को ले कर चुनावों में उतरी है उन मुद्दों को यथार्थ में उतरने का ये एक अच्छा मौका हो सकता है| ‘आप’ राजनीती से भ्रष्टाचार और गन्दगी को हटाने का मन रखती है तो बी जे पी के साथ सरकार में शामिल हो कर बी जे पी की तथाकथित गन्दगी साफ़ कर सकती है| मैं कांग्रेस का साथ लेने के लिए इसलिए नहीं कहूँगा क्यूंकि कांग्रेस की पूरी की पूरी चुनरी  ही काली है, बी.जे.पी. की चुनर कुछ तो साफ़ है| अब ‘आप’ के पास ये सिद्ध करने का मौका है की भाई हम तो जो कहते हैं वो ही करते हैं अगर दूसरा दल नहीं सुधरेगा तो जनता उसे सबक सिखलाए|  यहाँ बी.जे.पी भी खुद को एक आदर्शवादी पार्टी के तौर पर पुनर्स्थापित कर सकती है, अरे हम नहीं कह रहे की वो अपनी विचारधारा छोड़ कर नई राहें बना ले  पर स्वयं को राष्ट्रवादी और राष्ट्रप्रेमी कहने वाली पार्टी राष्ट्र और जनता के हित  में स्वयं सुधार  के रास्ते  पर तो चल ही सकती है|   अच्छा, अगर ‘आप’ को आगे कभी भी लगता है कि बी.जे.पी.  साझा न्यूनतम कार्यक्रम से भटक रही है तो वो तत्क्षण जनता के बीच जा कर अपनी बात रख सकती है और जनता उसे निश्चित ही हाथों हाथ लेगी|
 आप भी उसी विचारधारा की बात करती है परन्तु सुर कुछ अलग है|अब साहब अगर एक अच्छी धुन बनानी हो तो सात सुरों के सुन्दर मिलन से ही उसमे मधुरता और रस आता है| वही कुछ प्रयोग दिल्ली  के राजनितिक आकाश में भी हो जाये और देखें तो की कैसी सुहानी धुन बनती है| एक कहावत दोनों दलों ने याद रखनी चाहिए कि आधी छोड़ पूरी को धावे, आधी मिले ना पूरी पावे| अतः मेरी  दोनों दलों के महानुभावों से नम्र विनती है की वो पहल करें और दिल्ली को खुश कर दें| आप को इस पहल से फायदा ही होगा और देश को भी|
                                                     
 
-  अवी घाणेकर
३०१०, सेक्टर ४/सी,
बोकारो स्टील सिटी

१२.१२.२०१३

अलविदा मडिबा !




आज साउथ आफ्रिका से दो दुखद खबरे सुनने को मिलीं| एक ऐतिहासिक पुरुष नेल्सन मंडेला की मृत्यु और दुसरी भारतीय क्रिकेट कि कब्र खुदने की|
मै हमेशा से ही नेल्सन मंडेला का प्रशंसक रहा हूँ और उनके आजीवन कार्यों से प्रभावित भी| साठ के दशक से २७ साल साऊथ अफ्रीका की विभिन्न जेलों में बंद कर, अनेक पाशविक यातनाएं देने पर भी उनके जज्बे और उनके आदर्शों को वहां की नस्लवादी सरकार तोड़ नहीं पाई, और आखिर वैश्विक दबाव और अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के अनवरत प्रयत्नों और विरोध के कारण नेल्सन मंडेला जेल से बाहर आये| इतनी लम्बी अवधि तक नस्लवादियों के अमानवीय अत्याचारों को सहन कर भी उनके भाषणों में या उनके किसी कार्य से कभी भी उन्होंने गोरे नस्लवादियों के खिलाफ प्रतिशोध या बदले की भावना को हवा नहीं दी और सतत इसी प्रयास में रहे की कैसे श्वेत और अश्वेत आपस में घुलमिल कर रहे और बराबरी का मौका पाते रहें| सन १९९४ के चुनावों में ए एन सी  भारी बहुमत से विजयी हुई और नेल्सन मंडेला राष्ट्रपति चुने गए|सत्ता हाथ में आने पर भी उनके कार्यकलापों से उनकी विनम्रता और राष्ट्र प्रेम का जज्बा  कभी भी ओझल नहीं हुआ| उनका कार्यकाल साऊथ अफ्रीका को एक नए पायदान पर स्थापित कर गया, एक ऐसा देश जिसने ४००/५०० साल नस्लवाद का दंश झेला पर सत्ता परिवर्तन के बाद जिसने रंगभेद को त्याग कर शेत और अश्वेतों को सामान अधिकार और मौका दिया| १९९९ में अपने कार्यकाल के ५ वर्ष बाद स्वयं ही सत्ता सुख त्याग कर शासन की बागडोर अपने दूसरे साथियों को सौंप देना आज के वैश्विक परिपेक्ष में अविचारणीय है|मैं और मेरे साथ विश्व की अरबों सामान्य जनता उनके इस फैसले से अभिभूत हो गई और उनका स्थान हमारे मन में हिमालय के शिखर से भी ऊँचा उठ गया| १९९९ से सतत वो वैश्विक स्तर पर किसी न किसी समाज कल्याण के कार्य में लगे रहे और करीब  २५० पुरस्कारों ने उन्हें सम्मानित कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस किया,, इसमें शांति का नोबल, भारत रत्न, आदि कई पुरस्कार शामिल हैं|
नेल्सन मंडेला ने साऊथ अफ्रीका के दलित और शोषित वर्ग का प्रतिनिधित्व किया और वर्षों के संघर्ष के बाद सत्ता की बागडोर सम्हाली| इतने संघर्ष के बाद भी पूर्व सत्ताधीशों के प्रति प्रतिशोध लेने का कोई विचार भी उन्हें छू नहीं पाया| सत्ता ऐसा नशा है की जिसकी खुमारी में भ्रष्टाचार का चखना बहुत स्वादिष्ट लगता है परन्तु साऊथ अफ्रीका की १९९४ से अब तक की सरकार में भ्रष्टाचार का कोई मामला विश्व के सामने आया हो मुझे याद नहीं पड़ता|  

अब अगर हम भारतीय परिपेक्ष में नेल्सन मंडेला को देखें तो पाएंगे की हमारे राजनैतिक इतिहास में शायद ही कोई ऐसा संत जन्मा होगा जो दशकों के संघर्ष के बाद हाथ आई सत्ता से मुंह मोड़ ले| हमारे यहाँ तो कब्र में पैर लटकाए हुए भी हम कुर्सी का ही सपना देखते रहते हैं| और तो और यदि कुर्सी हाथ आ गयी तो उसे स्वयं के पास ही रखने के लिए अनेकों तंत्र और कुतंत्र का सहारा लेते हैं| लोकतंत्र के महापर्व कहे जाने वाले चुनावों को हम एक महायुद्ध की भांति ही देखते हैं| पर्व से युद्ध तक का परिवर्तन हमें असंख्य कुचक्रों को करने पर मजबूर करता है| कुछ राज्यों में तो चुनाव एक दहशत ही बन गए हैं और जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर ही होते हैं|
अब अगर दलित शोषित वर्ग का तथाकथित प्रतिनिधित्व करने वाले दलों या व्यक्ति विशेषों का रुख करें तो पाएंगे की ऐसे दल या व्यक्ति अपनी अपनी झोली भरने में ही लगे हुए हैं और अवसरवादिता की पराकाष्टा के नित नए मापदंड बना रहे हैं| कुछ राज्य विशेषों में तो सरकारें बनती ही हैं घोटाले करने के लिए, आज एक दल और कल दूसरे दल के समर्थन से या समर्थन दे कर, उन्हें राज्य की उन्नति या जनता की खुशहाली से कोई सरोकार नहीं है, उनका काम है बेईमानी से धन कमा कर शान-ओ-शोकत की जिंदगी जीना| शर्म तो तब आती है जब ये दल गाँधी, अम्बेडकर, मंडेला जैसे राजनैतिक महापुरुषों का नाम ले कर अपनी अपनी राजनितिक रोटियां सेंकतें हैं|
माफ़ कीजिये मैं विषयांतर कर गया परन्तु क्या करूँ, नेल्सन मंडेला की महानता का जिक्र करते ही मुझे  हमारे आज के राजनैतिक टुच्चेपन का अहसास होने लगता है| खैर ... भारतीय क्रिकेट की बात फिर कभी क्यूंकि हमारी टीम हमें ये मौका फिर जल्द ही देगी ये यकीन है|
अंत में इश्वर से यही प्रार्थना है की वो दिवंगत नेल्सन मंडेला की आत्मा को शांति दें और यदि इश्वर उन्हें पुनर्जन्म देने  का विचार कर रहा हो तो उनका जन्म भारत में हो|
तथास्तु!!!!!!

- अवी घाणेकर
6.१२.२०१३

Monday, November 25, 2013

अ से अकेलापन



रात के आसमान में छिटकी चांदनी में अटखेलियाँ करते चाँद को देख कर अपना अकेलापन तीव्रता से खलने लगा| हफ्ते में 6 दिन मैं अकेला रहता हूँ और एक, सवा दिन भगवान के भोग की तरह अपने परिवार के साथ| ये जरूरी नहीं की हर हफ्ते मुझे ये प्रसाद मिल ही जाये और मेरे अकेलेपन पर परिवार के साथ का मरहम लग ही जाये| दिन तो ऑफिस की सरगर्मियों में निकल जाता है पर शाम होते ही इस अकेलेपन का अँधेरा मेरे जीवन में छाने लगता है| मैं आजकल स्वंय को सूर्य समझने लगा हूँ क्यूंकि सूर्य की भांति ही मैं अकेलेपन के दाह में जल रहा हूँ| सूर्य का तेज प्रकाश और गर्मी उसके अकेलेपन के कारण ही तो नहीं, सारी चांदनी तो चाँद के भाग्य में आ गईं और सूर्य जल रहा है विरह में एक अदद चांदनी के|
मैं पूर्व जन्म या भाग्य पर विश्वास तो नहीं करता पर मजबूर हूँ ये सोचने पर की क्या कारण है मेरे अकेलेपन का| इस अकेलेपन के कारण मैं अंतर्मुखी होता जा रहा हूँ और परिवार के साथ रहने पर भी उस आनंद को महसूस करना मेरे लिए असंभव हो रहा है| मेरे स्वभाव में अब तीखापन पनपने लगा है| बात बात पर चिडचिडाना, परिवार में पत्नी, बच्चों के प्रत्येक कार्य में मीन मेख निकालना मेरी आदत बन रही है| आज स्थिति ये है की शनिवार आते ही मेरा परिवार एक अज्ञात मानसिक तनाव में आ जाता है| मुझे मित्र भी नहीं हैं जिनके पास मेरे लिए समय हो और मैं अपनी समस्या का समाधान उनसे पूछ लूं, वस्तुतः मेरा कोई मित्र है ही नहीं| मैं दो अलग- अलग शहरों में रहता हूँ , हफ्ते भर सुबह से शाम ऑफिस की झंझटों में बीतता है, रात, पेट की भूख शांत करने में  और नींद को मनाने में | सप्ताहांत परिवार के साथ रहने और घर के छोटे मोटे कार्यों में बीत जाता है| मित्रता के लिए मेरे पास समय है कहाँ? मुझे नहीं मालूम और किसीके साथ ऐसी परिस्थिति है  या नहीं पर मेरी बहन के साथ भी यही स्थिति है| उसका मामला तो और भी विचित्र है| वो कहीं नौकरी नहीं करती तो दिन भर भी उसे निर्जीव वस्तुओं के साथ बिताना पड़ता है| मेरे बहनोई दूसरे शहर में नौकरी करते हैं और महीने –दो महीने में एक बार ही आ पाते हैं| कैसे सामना करती होगी वो उस अकेलेपन का इतनी लम्बी अवधि तक |खैर एक बात अच्छी है की उसे दोस्तों की कमी नहीं पर फिर भी परिवार की कमी तो दोस्त पूरा नहीं कर सकते| परिस्थितियां ऐसी बन रही हैं की शायद उसका ये वनवास जल्दी ही ख़त्म हो जाएगा| आशा है और शुभकामना भी कि उसे इस वनवास का अब कभी सामना न करना पड़े|
मैं तो शायद अब इस अकेलेपन का आदी हो रहा हूँ और भीड़ में भी खुद को अकेला ही महसूस करता हूँ| मेरे इस अकेलेपन के कारण मेरे अपने मुझसे दूर हो रहे हैं, कब तक जीना है मुझे ये शापित जीवन| कोई तो कहीं होगा जो कर सके मुझे इस श्राप से मुक्त| मुझे सूर्य सी प्रखरता और दाहकता नहीं चाहिए मुझे अपेक्षा है उस की, जो चांदनी से शीतल अपने प्रेम सरोवर में मुझे भिगो सके और शांत कर सके इस दाह को| मैंने रात का आसमान देखना छोड़  दिया है, मैं बंद कर लेता हूँ स्वयं को ४ दीवारों और एक छत के अन्दर सुबह तक जब तक फिर वो अकेला सूर्य मुझे न दिखे| और फिर सुबह से शाम हम दो अकेले बाँटते हैं एक दूसरे के सुख दुःख, जलते हुए विरह में अपनी अपनी चांदनी के|
  
अवी घाणेकर

२५.११.२०१३

Monday, November 11, 2013

स से सफाई


काम के सिलसिले में मुझे हर हफ्ते ही ट्रेन से छोटी छोटी यात्रायें करनी पड़ती हैं| रांची से मेरे शहर  बोकारो जाते वक्त ट्रेन में कई तरह के लोगों से सामना होता है| ट्रेनों में मूंगफली, झाल मुड़ी ,चाय आदि बेचने वाले कई फेरीवाले आते जाते हैं और लोगों के खान पान का ध्यान रखते हैं|
मैंने देखा है की मूंगफली खा कर छिलके अपनी सीट के नीचे फेंकने में यात्रियों को बड़ा मजा आता है और फिर उन छिलकों पर चलने से आने वाली मजेदार आवाज का आनन्द तो बिरला ही होता है| झाल मुड़ी के अजीब  और छोटे से ठोंगे से मुड़ी गिराने का मजा और ट्रेन की खिडकियों से आने वाली हवा पर तैरते उन मुड़ी के दानों का दूसरे यात्रियों पर गिरना कितना सुखद अनुभव है| चाय पीकर उस कागज़ के कप को तोड़ मोड़ कर बगल वाली सीट के नीचे फेंकना दिल को एक स्वर्गिक आनंद देता है| खैनी खा कर थूकना तो अपने आप में परमानन्द है| खिड़की से हाथ और पानी की बोतल निकाल कर सीट पर बैठे बैठे हाथ धोना और अगली/पिछली सीटों पर बैठे यात्रियों को नहलाने की अधूरी कोशिश की तो बात ही निराली  है| शौचालय, वाश बेसिन इत्यादि को गन्दा करना भी हमें असीम सुख की अनुभूति कराता है| भाई साहब , पान खा कर पीक से  वाश बेसिन को रंगना भी एक कला है और हम भारतीय तो इस कला में अखंड हैं| कोई हमारा हाथ नहीं पकड सकता शौचालय को गंदा करने में|  अच्छा ऐसा नहीं है की ये सब बस साधारण श्रेणी के डिब्बों या ट्रेनों में ही नज़र आता है, राजधानी, शताब्दी आदि ट्रेनों में, वातानुकूलित डिब्बों में भी अमूमन यही स्थिति देखने को मिलती है| इसका मतलब क्या है ये सोचने को मजबूर करता है| वातानुकूलित  डिब्बों में एक विशिष्ट वर्ग, उच्च मध्यम और उच्च वर्ग ही अधिकतर सफ़र करता है, ये सारे लोग अक्सर पढ़े लिखे, और तथाकथित संभ्रांत होते है| परन्तु साहब आनंद लेने का हक तो इन्हें भी है तो ये क्यूँ चूकें| आज की स्थिति देखें तो ट्रेनों में सफ़र करना एक बड़े महायुद्ध से भी भयंकर लगता है मुझे| महायुद्ध के बाद जैसी दुर्गन्ध, महामारी आदि फैलती है, कमोबेश वही दुर्गन्ध आदि आपको भारतीय रेल में अनुभव होगी|
भारतीय रेल ने , ट्रेनों में, स्टेशनों में  जगह जगह सूचना लिखी है की ट्रेन को, स्टेशन परिसर को  साफ़ रखें, ये आपकी राष्ट्रीय संपत्ति है इसकी रक्षा करें| लेकिन इसको मूर्तरूप देने के लिए कोई कार्यक्रम रेल के पास नहीं है, अजी बस लिख देने से अगर हम समझ जाते तो बात ही क्या थी| ऐसा भी नहीं की आप गन्दगी फ़ैलाने वाले अपने सह यात्रियों को समझा कर , बोल कर वैसा करने से रोक सकते हैं| मेरे साथ अक्सर मेरे सहयात्रियों की बकझक हो जाया करती है इस विषय पर| उन्हें रोकिये या समझाइये  तो उनका जवाब बड़ा प्यारा होता है| हम क्या आपके घर में गंद फैला रहे हैं, जाइये अपना काम करिये| कुछ लोग समझ जाते हैं और फेंकी हुई गंदगी उठा कर ट्रेन के बजबजाते डस्ट बिन में फेंक आतें है| परन्तु जाते जाते कह ही जाते हैं ये अंकल तो साला बड़ा खूसट है|  आज कल मैं एक झोला लिए चलता हूँ और डिब्बे में मेरे आस पास फेंकी हुई गन्दगी, छिलके आदि उठा कर उस झोले में डाल लेता हूँ और स्टेशन पर रखी कचरा पेटी में छोड़ आता हूँ| मेरे इस काम से गन्दगी फ़ैलाने वाले कुछ  यात्री सुधर रहे हैं ऐसा लगता है परन्तु सुधरने वालों का प्रतिशत, मुझे पागल समझने वालों से कहीं कम है|
भारतीय रेल भी डिब्बों में डस्ट बिन लगा कर और सूचनाएं चिपका कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है| उन कचरा पेटियों को खाली करना, सफाई का प्रतिबद्धता से पालन करना और करवाने से उनका कोई सरोकार नहीं है| साल में एक हफ्ता सफाई अभियान और  बड़े साहब के निरीक्षण दौरे के समय इन सब बातों का ख्याल रख लेते हैं, अब साल भर अगर सफाई करते रहे तो बाकि का काम कौन करेगा साहब|
करीब करीब यही माहौल आप अपने घर के आस पास भी देखते होंगे, अपने घर का कचरा, सड़क पर डालना आम बात है| अब तुझे तकलीफ होती है तो तू साफ कर सड़क, मैंने तो अपना काम कर लिया| परिणामों की परवाह न हमने कभी की है और न करेंगें| गन्दगी से होने वाली बीमारियाँ होती हैं तो सरकार और नगर निगम को गाली देने का अवसर रहेगा और मोर्चा आदि निकालेंगे तो अख़बार में फोटो भी तो छपेगी, सफाई का ध्यान रखने से कौन पूछेगा हमें|
मेरे कार्यालय के पास सड़क किनारे एक सुलभ शौचालय है, उसके सामने ही करीब ८/१०  ठेले सुबह शाम  लगते हैं जिन पर समोसे, कचौड़ी, जिलेबी, चाइनीस इत्यादि  बिकता है| सुलभ शौचालय से मात्र २० फीट की दूरी पर लगे इन ठेलों पर अतुलनीय भीड़ उन व्यंजनों का आनंद लेती रहती है, शौचालय के दरवाजे पर खड़े हो कर| क्या विरोधाभास है, परन्तु किसीको को कोई परवाह नहीं|  उस भीड़ के कारण शौचालय का सही उपयोग करने वाली जनता अन्दर जा ही नहीं पाती और सड़क किनारे ही फारिग हो लेती है| जय हो!
तो, निष्कर्ष यह की हम नहीं सुधरेंगे|  




                                                                                                                                                                - अवी घाणेकर

०८.११.२०१३

Saturday, October 26, 2013

अपने राम का हसीन सपना २

सपने देखने की लत लग जाती है क्या साहब? अभी कल ही तो मैंने परसों रात के सपने के बारे में आपको बताया था, और कल रात फिर मुझे एक सपना आया| अब तो साहब रातों की नींद ख़राब हो रही है इन सपनों से| खैर सपने को आप से साझा तो करना ही पड़ेगा वरना दिल की बात दिल में ही रह जाएगी| कल रात मैंने देखा .....

उन सभी आदरणीय, प्रातः वन्दनीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का आवाहन स्वीकार कर मैंने ठान लिया की जो भी हो अब इस समाज प्रबोधन के कार्य को सफल करना ही है| अंग्रेजी में एक कहावत है .. चैरिटी बिगिन्स एट होम इसी का ध्यान रख कर मैंने अपने घर से ही इसकी शुरुवात करने की ठानी| सबसे पहले ख्याल आया की मुझे अपने पिताजी से इस बारे में बात करनी चाहिए और मैं बढ़ गया उनके कमरे की तरफ| पचास वर्ष के करीब पहुँच गया हूँ पर आज भी पिताजी के सामने जाने में मेरी .....{(शब्द जो मन में आया वो लिखना ठीक नहीं, क्यूंकि शायद इसे नई  पीढ़ी भी पढ़े) ये बात और है की आज की पीढ़ी वो शब्द अक्सर ही प्रयोग करती है}….. आत्मा कांपती है| पिताजी अपने टेलीविज़न पर उनके पसंदीदा खिलाडी का मैच देख रहे थे| कुछ देर इधर उधर की बातें कर मैं मुद्दे पर आया| देखो मेरा दिमाग मत ख़राब करो, क्या उलजलूल की बातें मन में आती हैं इस उम्र में ये सब ठीक नहीं| उन्होंने कहा| मैं भी कमर कस के आया था तो मुद्दा छोड़ने को तैयार नहीं था| क्या बकवास है, मुझे परेशान मत करो वैसे ही मेरी अन्जियो प्लास्टी हो चुकी है, रोज दस बारा गोलियां खा रहा हूँ की दिल सलामत रहे और तुम कहते हो की दिल पर काई जमी है| अरे नालायक ! बाप से ऐसी बातें करते शर्म नहीं आती| उन्होंने डांट लगाई| अब मेरी हिम्मत जवाब दे गई और उनके पीछे न पड़ने का विचार कर मैं अपने कमरे में आ गया|  समाज सुधार की खुजली जोर मार रही थी और सामने देखा तो मेरी प्रिय पत्नी अपना आला और एप्रन ले कर कहीं जाने की तयारी में है| मेरी पत्नी एक ख्यातनाम डॉक्टर हैं और हमारा प्रेम विवाह है| आज रविवार को भी अस्पताल जा रही हो| मैंने पूछा| आज कॉल डे है, तुम्हे बताया तो था, तुम समझते ही नहीं| उसने बड़ी हिकारत भरी नज़रों से मुझे देखते हुए कहा| मुझे तुम से कुछ आवश्यक बात करनी है| मैंने कहा| जो भी कहना है बाद में कहना अभी मुझे समय नहीं है| उसका जवाब था| फिर भी बड़ी शिद्दत से मैंने उसे अपने प्यार का हवाला देते हुए रोक लिया और मुद्दा उसके सामने रखा| अवी, डॉ. प्रधान  हमारे अस्पताल के बड़े अच्छे मनोरोग विशेषज्ञ हैं, मैं कल ही  उनका अपॉइंटमेंट ले लेती हूँ| तुम्हें इलाज की जरूरत है|उसने सहानुभूति दर्शाते हुए कहा| तुम समझ नहीं रही हो, परसों के सपने ने मेरे दिल पर जमी काई हटा दी और मुझे एक नया प्रकाश दिखने लगा है| मैं चाहता हूँ की दूसरों से पहले अपने लोगों के दिलों को ही साफ़ कर लूं| मैंने ज़ोर दे कर कहा| अब तो उसका पारा सातवें आसमान पर था| पति देव! आपका दिल तो साफ़ हो गया पर दिमाग ख़राब हो गया है, और वैसे भी मेरा दिल मेरे पास नहीं है| ये सुनना था की मेरे होश उड़ गए, मेरी पत्नी का दिल उसके पास नहीं है| मेरे चहरे के भाव पढ़ कर उसे मुझ पर कुछ दया आई और उसने बड़े लाड से कहाहमारा दिल आपके पास है और अपनी कार में बैठ कर वो अस्पताल चली गई|
दो मोर्चों पर विफल हो कर भी मैंने हार नहीं मानी और अपनी छोटी बेटी के कमरे की ओर बढ़ गया| बेटी से इधर उधर की बातें करने की बजाय मैंने सीधे मुद्दे पर हाथ डाला| तुम्हारा दिल कहाँ है? मैंने पूछा| बिटिया रानी पढाई कर रहीं थीं, इस साल बारहवीं की परीक्षा है| बाबा ! आपकी तबियत तो ठीक है न, अभी कल ही तो इस विषय पर अपनी बात हुई है और आपने ही कहा न की अब पढाई में दिल लगाओ| तो और कहाँ होगा मेरा दिल| मुझे कुछ घूरते हुए उसने कहा| मैंने उसे कल रात के सपने के बारे में बताया और मेरे महान कार्य में सहयोग करने की गुहार लगाईं| अभी कुछ साफ- वाफ करने का वक्त नहीं है,  जो पढ़ा है  वो भी अगर इस सफाई में निकल गया तो फिर आप ही दस बातें सुनाएंगे मुझे| उसका उत्तर मुझे अनुत्तरित कर गया और मैं निराश सा  बैठक के कमरे में चला आया|
मेज पर पड़ीं दो चार पत्रिकाओं को उलटते पलटते भी मेरे दिमाग में समाज सुधार का कीड़ा कुलबुला रहा था की तभी फ़ोन की घंटी बजने लगी| मेरी बड़ी बेटी मुंबई से बोल रही थी| बाबा तुम से ये उम्मीद नहीं थी, आई को तो समय नहीं है पर तुमने तो हफ्ते में एक बार मुझे फ़ोन करना चाहिए| जैसे मैं तो खाली ही बैठा रहता हूँ| उसे क्या मालूम की कितनी बड़ी मुहीम मैंने हाथ में ले रखी है| क़रीब  पांच मिनिटों तक वो अनवरत मुझे डपटती रही और फिर उसने बड़े स्नेह से पूछा| और क्या चल रहा है| अंधे को और क्या चाहिए .... मैं शुरू हो गया अपने सपने की हकीकत बयां करने पर| मेरी बात ख़त्म होने के काफी देर बाद उसने एक सधे हुए मनोवैज्ञानिक के लहजे में कहा|बाबा ! सपना देखना बुरी बात नहीं है पर सपने को सच मान कर पागलपन की हद तक उसका पीछा करना मनोरोग का लक्षण है| सपने हमें क्यूँ आते है ये जानते हो, हमारे अंतःकरण में सुप्त इच्छाएं हमें सपने के रूप में दिखाई पड़ती हैं| खैर मैं दिवाली की छुट्टियों में घर आउंगी तब तुम से बात करती हूँ, अभी मुझे लैब जाना है इसलिए फ़ोन रखती हूँ| आई को कहना मुझे उससे बात करनी है| ये कह कर उसने फ़ोन बंद कर दिया| अब तो हद हो गई मेरा परिवार ही मेरा साथ देने की बजाय मुझे पागल समझ रहा है| घर की मुर्गी दाल बराबर ये मुहावरा याद करते हुए मैं घर के बाहर निकल पड़ा|
कई मित्रों, जान-पहचान वालों के यहाँ से मायूसी हाथ ले कर और सारा रविवार व्यर्थ गवां कर जब मैं वापस घर पहुंचा तो पूरी तरह से टूट चुका था| कितनी उम्मीद और उत्साह से मैंने अपने सपने को सच करना चाहा पर हुआ वही जो अक्सर होता है , सपना कभी सच नहीं होता| अचानक टीवी की जोरदार आवाज से आँख खुली और सुनाई दिया की दौंडिया खेडा की खुदाई में टनों सोने की जगह जंग लगे लोहे के सिवाय कुछ नहीं मिला| ऐसा ही तो कुछ मेरे सपने के साथ भी हुआ है, दिलों पर जमी काई साफ़ करने में तो शायद कम मेहनत लगती पर जब दिलों पर जंग लगी हो तो सफाई असंभव है|
अब तो एक ही रास्ता बचा है की अब मैं उन स्वतंत्रता सेनानियों के सपने में जाऊं और उनसे माफ़ी मांग लूं अपनी पराजय पर|



                                                            अवी घाणेकर

२६.१०.२०१३ 

Friday, October 25, 2013

अपने राम का हसीन सपना १

अपने राम का हसीन सपना

लता मंगेशकर का एक गीत करीब १५ दिनों से मेरे जेहन में गूंज रहा था मेरे सपने में आना रे .... आज कल सपने देखने का भी एक क्रेज़ हो गया है जब से सपने में टनों सोना दिखने लगा है, कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ और मैं सुबहोशाम गुनगुनाने लगा, मेरे सपने में आना रे ... किसी गड़े खजाने का पता, मुझको बतलाना रे ...... मेरे सपने में आना रे ... और लो जी गजब हो गया रात मुझे सपना आया| सपना ......
                                                                                                                                                               -मैं एक सुनसान सड़क पर अकेला चला जा रहा हूँ और एक मोड़ पर मुझे अचानक एक भीड़, हजारों के  हुजूम ने घेर लिया| उन हजारों में हर एक कुछ न कुछ कहना चाह रहा था, ऐसी चिल्लपों मची थी की हमारी लोकसभा और विधान सभाओं की याद दिला गयी| मैंने उन्हें शांत रह कर अपनी बात रखने का आग्रह किया और आश्चर्य कि वो सब शांत हो गए| उन्होंने आपस में तय कर के एक व्यक्ति को, जो की उनमें सबसे बुजुर्ग लगता था और लाठी के सहारे चल रहा , मुझसे बात करने को भेजा| उस व्यक्ति का चेहरा कुछ जाना पहचाना सा लग रहा था, पर शाम के धुंधलके में ठीक से पहचाना नहीं जा रहा था|
उसने मुझे कहा की, "बेटा हम सब तेरे पास एक खजाने का पता बताने आये हैं|" अजी क्या बात है, खजाने का पता, दिल बल्लियों उछलने लगा और मैं उसके और करीब चला गया| अजीब सी सिहरन सारे  शरीर में होने लगी, लगा की आज तो लग गयी अपनी नाव किनारे|
बेटा तुझे स्वतंत्रता संग्राम के बारे में कुछ पता है उसने पूछा, मेरा जवाब हाँ में ही था| हजारों लाखों  क्रांतिकारियों के बलिदान और तिलक, गाँधी, बोस, आजाद, भगत सिंह के जन जागरण से ही हमें आज़ादी मिली मैंने कहा| शाबास, तेरा लिखा हम फेसबुक पर पढ़ते थे और सोचा की तू ही इस खजाने को खोज सकता है इसलिए हम तेरे पास आये हैं| अब मेरे मन में उनके प्रति अति आदर का भाव जन्म लेने लगा था, फेसबुक पर मेरा लिखा पढ़ते हैं? वाह ! वाकई आदर के पात्र हैं|
बेटा, अपने देश की आबादी कितनी है? उसने पूछा| १२० करोड़ से ज्यादा, मैंने कहा| उसमे से गरीब, मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग की कितनी आबादी होगी? उसका प्रश्न था| अब मेरे सब्र का बांध टूटने लगा, क्या बकवास है, खजाने का पता बताओ और छुट्टी करो| फिर भी मैंने कहा होगी यही कोई ८०/९० करोड़| बस बेटा इन्ही ८०/९० करोड़ जनता के दिल में छुपा है वो खजाना, जरूरत है बस उनके दिलों को छूने की, हलके हाथों से कुरेदने की और तू देखेगा की बरसों से सोये, मृतप्राय दिलों में जो आग है वो हज़ार टन सोने की चमक से भी अधिक प्रकाशमान है| बस उस पर जमी निराशा, भ्रष्टाचार, अंध विश्वास, अज्ञान की काई भर हटाना है|  काई के हटाते ही ये सौ करोड़ अपने अपने खजाने खुद ही खोज लेंगे और इस खुदाई से एक नए भारत की नींव रखी जाएगी|  हमारे जाने के बाद देश में जो हो रहा है उसे देख कर हमें शर्म आती है और उसी शर्म ने हमें मजबूर किया है की हम यहाँ आकर किसी ऐसे को खोजें जो हमारी बात सुन सके, समझ सके और फिर उसे लोगों तक पहुंचा सके| बड़ी आशा ले कर आये हैं हम , हमारे बलिदानों को व्यर्थ मत जाने दो, देर से ही सही हमारे खून की कीमत आज अदा कर दो|”  मैं भौंचक उन्हें और उस भीड़ को देख रहा था, अब मुझे उस भीड़ में सभी जाने पहचाने चेहरे दिखने लगे, वो आजाद, वो भगत सिंह, वो सावरकर, अरे वो बाल गंगाधर तिलक, और, और  मुझसे बात करने वाले गाँधी जी| गाँधी जी को सामने पहली बार देखा था, वो तो सांवले हैं, फिर हरा गाँधी, लाल गाँधी ऐसा क्यूँ कहते है सरकारी लोग, खैर ये विचार झटकने के लिए  मैंने अपने सर को जोर से हिलाया और मेरी आँख खुल गयी| तो ये सपना ही था, खजाना, खजाना कहाँ गया| लाल, हरे गाँधी जी के बजाय अब मुझे सांवले गाँधी जी से ही काम चलाना पड़ेगा| खैर ......  इस सपने से  मेरे दिल पर जमी काई तो हट ही गई और वाकई मुझे अपने अन्दर सुवर्ण प्रकाश दीखने लगा|

उस सपने के बाद मैं कोशिश में हूँ की लोगों के दिलों पर जमी काई साफ कर सकूँ और प्रेरित कर सकूं लोगों को अपना अपना खजाना खोजने के लिए| अभी तक तो सफलता हाथ नहीं आई पर .....   कहते हैं न .....  कोशिश-ए मर्दा  तो  मदद-ए खुदा| हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब एक दिन ....


                                                                                                                                          अवी घाणेकर
रांची

२५.१०.२०१३