Thursday, October 27, 2016

प्यार का पुल

जिंदगी भी अजीब शै है भय्ये जब जिस वक्त जिस चीज़ की जरूरत होती है उसे हमसे दूर कर देती है| अब देखिये जवानी में समय की चाहत थी तो वो नहीं था अब बुढ़ापे में जोश की जरूरत है तो वो नहीं है| जवानी गुजर गई जिंदगी को सजाने संवारने में और निन्यानबे के फेर में, जब तक इस आपाधापी से फारिग हुए तो आ गया बुढ़ापा| अब अगर चाहें कि चलो अब जिंदगी के मजे लें तो भैय्ये अब कहीं पैर नहीं काम करता, पैर ठीक है तो पेट की मारामारी है, पेट सही है तो साँस फूलती है, सांस भी सही है तो दिल है की मानता नहीं| अजी साहब अजीब पशोपेश में हैं अपनेराम, करें तो क्या करें|
खैर, जब कुछ हो नहीं पाता तो बैठे हैं हाथ पर हाथ धरे और कर रहें हैं याद पुराने दिनों को| ऐसा होता तो कैसा होता, ये करते तो वो होता, पर अब अपनी पुरानी गलतियों और चूके हुए मौकों पर पछताने के अलावा कुछ हासिल नहीं|
अपनेराम को हरेक बात की बड़ी जल्दी रहा करती थी| १९ की बाली उमर में, जब मसें भी नहीं भीगीं थीं, घर से भाग कर कमाने के फेर में पड गए| इससे पहले १७ की उमर में ही एक लड़की को दिल दे बैठे और जनम जनम साथ निभाने के वादे कर डाले| अब साहब इतनी जल्दी जल्दी सब चक्कर घूमने लगे की २४ आते आते शादी भी कर डाली|
"मैं २४ बरस का वो २३ बरस की, एक दुसरे से जरा दूर रहना, कुछ हो गया तो फिर ना कहना|"
और भैय्ये ये तो होना ही था अब जब सोचा की भैय्ये आराम से शादी शुदा जिंदगी का मजा लेंगे २/४ साल, पर हड़बड़ी और उतावलेपन की आदत यहाँ भी दगा दे गई और २५ के होते न होते २ बच्चियों( जुड़वां थी भैय्ये, कोई बेकार बात न सोचो) के बाप बन गए| यहाँ सब गड़बड़ हो गया, भले ही शादी कर ली थी पर अकल तो भैया आते आते ही आती है, अरे वही जिसे अंग्रेजी में “मैच्योरिटी” कहते है| तो भैय्ये अकल की कमी और हद दर्जे की हड़बड़ी, अपने राम उन नवजात बच्चियों से ही डाह करने लगे| अब तो रोज दिन बीबी से चिकचिक और उन बच्चियों से जलन यही रवैय्या हो गया अपनेराम का| जवानी का जोश ऐसे जोर मार रहा था की अपनी बच्चियां राह का रोड़ा लगती थीं, अब बुढ़ापे में जब अपनी बच्चियां अपन से दूर हैं तो रोज उनकी चिंता में मिटे जा रहे हैं| यही समझ उस समय जिंदगी ने दी होती तो .... पर ये साली जिंदगी है ही ऐसी काईंयाँ की जब जरूरत है तब उस बात को कहाँ छुपा कर रख देती है राम जाने | वो तो अपनेराम की बीबी को जरा जल्दी समझ आ गई थी इसलिए अपन का रिश्ता टिका रहा भैय्ये वगरना तो कोई दूसरी होती तो बिस्तर गोल कर के कब की भाग गई होती|
खैर, जो होना था हुआ और इस सब चक्कर में अपनेराम का कवी ह्रदय अचानक समस्या का समाधान ले आया और एक कविता बन गई जिससे सारे सवाल ही हल हो गए या ये कहें की भैय्ये अपनेराम “मैच्योर” हो गये| अब तो आप समझ ही गए होंगे की अपनेराम ये सारी भूमिका उस कविता को सुनाने के लिए ही बाँध रहे थे तो भैय्ये अगर आप समझ ही गए हैं तो फिर देर काहे की .....
वो जो हममे तुममे प्यार था, वो कहाँ गया, वो गया कहाँ,
वो प्यार वक्त के बीतते , रहा नहीं अब बचा कहाँ|
१) बात पहले की कुछ और हुआ करती थी,
मैं तुझपे औ तू मुझपे मरा करती थी,
घूमते फिरते थे सपनों के शहर में या रब,
दिन ख्वाबों में औ रात आँखों में कटा करती थी,
इतने मसरूफ हम खुद में ही रहा करते थे,
सारी दुनिया तब हम तुमसे जला करती थी|
२) जाने किस लम्हे फिर जिंदगी ने दी दस्तक,
प्यार सारा ही बिखर गया यक बक,
दो किनारों पे भौंचक से खड़े थे हम तुम,
दरमियाँ फ़र्ज़ का एक समुन्दर था|
३) तू तो मशगूल हुई अपने कामों में,
परवरिश बच्चों की, बड़ा होना उनका,
उनकी बीमारी, उन्ही का रोना ,
जैसे मैं कुछ भी नहीं था तेरी दुनिया में|
४) मैं कुढ़ा करता था उनकी किस्मत पे,
वो, जो मेरे भी तो बच्चे ही हुआ करते थे,
फिर अचानक ही दिल में एक आया ख्याल,
हल हो गए एक झटके में फिर सारे सवाल|
५) ख़त्म हो गया था वो जमाना अपना,
अब इस नई नस्ल को ही हमें संजोना था,
वो प्यार जो चुक गया सा लगता था,
इस नई नस्ल के साथ ही उसे पाना था|
६) प्यार इनपे ही लुटा कर जानम,
अपने माज़ी को जिला रखना था,
उस समुन्दर के किनारों को मिलाने के लिए,
बस इसी प्यार के पुल को बना रखना था|
अवी घाणेकर

अपनेराम का आध्यात्म

अपनेराम आज अलगई मूड में हैं, आज उनके दिमागे शरीफ में आध्यात्म को ले कर कुलबुलाहट हो रही है| आखिर अपनेराम के मित्र, परिवार में हरेक दूजा बंदा आध्यात्म झाड़ता रहता है| ऐसे नहीं वैसे होना चाहिए, वैसे नहीं ऐसे होना चाहिए| जब अपने ऊपर बात आती है तो सब आध्यात्म वाध्यात्म लाल पोटली में बांध कर राम जाने कहाँ छुपा देते हैं| अपनेराम को तो लगता है की इन आध्यात्म के बाबा गुरुओं को उसका मतलब भी पता नहीं है| अपनेराम के हिसाब से तो आध्यात्म मतलब अपने गिरेबान में झांकना| अगर संधि विच्छेद कर के देखा जाये तो अधि + आत्म अर्थात स्व के सम्बन्ध में ज्ञान, या, स्व का ज्ञान मतलब हुआ के नहीं अपने गिरेबान में झांकना| अब ये बाबा लोग अपने तो जो हैं सो हैं पर दूसरे की जिंदगी में घुस कर उसे जीवन जीने के तरीके सिखाने लग पड़ते हैं| अरे साहब अगर अपनेराम खुद को अन्दर से पहचानते हैं तो उनसे बढियां जीना कोई जानता ही नहीं है| ये आध्यात्म की लफ्फाजी चाहिए किसको ? हम जब स्वयं को अन्दर बाहर से अच्छी तरह से समझ चुके हैं तो किसी दूसरे को दोष या उपदेश देने की जरूरत ही नहीं है क्यूंकि हम ये जान गए हैं की मनुष्य स्वभाव चंचल है वो अलग अलग परिस्थितियों में अलग अलग तरह से प्रतिक्रिया देता है| इन आध्यात्म के पुजारियों और पंडों से एक ही बिनती है अपनेराम की कि भैय्ये अपनी अपनी जिंदगी जिओ और पहले आध्यात्म का मतलब तो समझ लो|
आध्यात्म का उल्टा होता है भौतिकता| इसी भौतिकता के गहरे समुन्दर में डूबते उतराते ये तथाकथित आध्यात्म गुरु आध्यात्म की बाते झाड़ते हैं| अपने तो चमड़ी जाये पर दमड़ी ना जाये के उसूल पर चलेंगे और हमें सिखायेंगे की तेरा क्या था, क्या ले कर आया था और क्या ले कर जायेगा, सब मोह माया है| खुद तो उस माया की लीला में रत रहेंगे पर अगले को उससे दूरी बनाने की शिक्षा देंगें| अरे सुसरों तुम सारी जिंदगी निन्यानबे के फेरे में रहे और अब जब सारी जवाबदेहियों से मुक्त हो गए तो लगे झाड़ने आध्यात्म का ज्ञान और ऊपर से तुर्रा ये की हमने तो अपनी जिंदगी भैय्ये इन्ही उसूलों पर जी| अरे अब मुंह न खुलवाओ सुसर के नातियों अब रेहन दो|
अच्छा ये मित्र और परिवार के गुरूजी क्या कम थे की अब तो भैय्ये फेसबुक और व्हाट्स अप आदि आदि पर भी सैकड़ों ज्ञान के पिटारे खुल गए हैं| रोज कोई न कोई बंदा या बंदी किसी न किसी ऐसे ही गुरुओं का फ़ॉर्वर्डेड ज्ञान शेयर करता फिरता है| अपने तो जिंदगी में कभी नैतिक या न्याय संगत आचरण किया ही नहीं होगा पर फेसबुक और व्हाट्स अप पर नैतिकता और न्याय प्रियता के मैस्कॉट बन कर कर फॉरवर्ड हो रहे हैं| अरे लानत भेजो ऐसे दिखाऊ ज्ञान पे|
वैसे भी भैय्ये , आध्यात्म माने अंग्रेजी में स्पिरिचुअलिटी के इतने अलग अलग और व्यापक अर्थ हैं की कौन सा अर्थ किस सन्दर्भ में लगेगा ये भी पता करना मुश्किल है| इन पाखंडी बाबाओं और गुरुओं ने आध्यात्म को धर्म और जीवन पद्धति से ही जोड़ कर देखा है| इसके दूसरे प्रारूप भी हैं ये इनको ज्ञात ही नहीं है| अरे भैय्ये अब मुझे अपनी जिंदगी जीने की कला किसी दूसरे से क्यूँ सीखनी है, दिन रात हाड़ तोड़ मेहनत करते हैं, अपने माता पिता की सदा सेवा करते हैं, अपने सभी कर्तव्य अच्छे से पूर्ण करते हैं, अपने परिवार को पूर्णतः समर्पित हैं किसी और के फटे में टांग नहीं अडाते, सदा खुश रहते हैं, इससे बढियां जीना किसे कहते है भैय्ये| अपने राम तो ऐसे ही जीते हैं और ऐसे ही जियेंगे, क्या जरूरत है आध्यात्म ज्ञान की| अपने राम को ज्ञान झाड़ने की जरूरत ही नही है भैय्ये अपन तो आध्यात्म के जीते जागते उदहारण हैं| 
अपने एक जानने वाले हैं जिनको किस्मत का ऐसा आशीर्वाद प्राप्त है की जनम से ले कर अभी तक उनके सब काम अपने आप ही हो जाते हैं, जनम तो उनका अपने आप ही हो गया उसमे उनको कोई कष्ट नहीं लेना पड़ा, पर उसके बाद भी भैय्ये, पढाई लिखाई, शादी, बच्चे, पैसा, जायदाद सब आशीर्वाद रूप में प्राप्त हुआ, और हो रहा है| अब ये भाई साहब भी आध्यात्म आध्यात्म की रट लगाये घूमते हैं और अपने आप को किसी महापुरुष से कम नही समझते| जिसने आज तक कोई कष्ट ही नहीं किया और फल पाता गया वो गीता का ज्ञान ही सुनाएगा भैय्ये, क्यूंकि उसे नहीं मालूम की कष्ट करने के बाद जब फल ना मिले तो क्या दुःख होता है, बकवास करना कि कर्म किये जा फल की इच्छा मत कर बहुत आसान है| 
खैर............ अपना आध्यात्म तो यही कहता है की भैय्ये अपने आप को शत प्रतिशत जान लो और वैसे ही आचरण करो| ढोंग और दिखावा करने से कुछ हासिल नहीं, हाड़ तोड़ मेहनत करो और थक जाओ तो किसी अपने के कंधे पे सर रख कर सुस्ता लो और ज्यादा ही थक गए हो तो श्रम परिहार के लिए आध्यात्म ज्ञान का निचोड़(जो बाज़ार में बोतल बंद रूप में मिलता है) धकेल लो हलक के नीचे और आध्यात्म के गहरे समुन्दर में डूब जाओ| कल तो फिर है ही नया सवेरा........ 
अवी घाणेकर

पिंक

अपने राम जरा घर घुस्सू टाइप के आदमी हैं, रात बेरात इन्हें कहीं जाना अच्छा नहीं लगता, वैसे भी अगर बाहर कोई काम ना हो तो दिन में भी अपने राम घर पर ही रहना पसंद करते हैं| लेकिन कल रात बहुत हिम्मत करके पत्नी के आग्रह पर अपनेराम नाईट शो फिल्म देखने राजी हो गए| फिल्म थी “पिंक”| हॉल में गिने चुने २०/२२ लोग थे , फिल्म शुरू हुई, शुरुवाती दौर में फिल्म समझ नहीं आ रही थी, लेकिन सभी लोग दम साधे बैठे रहे, लगता है सभी फिल्म का रिव्यू पढ़ कर आये थे| धीरे धीरे फिल्म कुछ कुछ पल्ले पड़ने लगी और समझ आया कि फिल्म सदियों से चली आ रही समस्या पर केन्द्रित है| वही, चिरंतन अनुत्तरित प्रश्न! नर और नारी के लिए परंपरागत और रुढ़िवादी अलग अलग मापदंड| नर को सब माफ़ और नारी को अनगिनत वर्जनाएं| इस विषय पर कई सदियों से बहस चल रही है पर इसका ठोस उपाय अब तक नहीं मिला| अपनेराम सदा से नारी पर लगी इन वर्जनाओं से असहमत हैं और अपनेराम का आचरण भी उनकी अपनी विचार धारा की तरह अपक्षपाती रहा है| इस सन्दर्भ में अपनेराम काफी कुछ लिखते रहे हैं (अब उसे पढ़ता और उस पर कोई अमल करता नहीं ये अलग बात है) उनका लिखा “व्रत वैकल्य और पुरुष” लेख काफी लोगों ने सराहा पर जब बात स्वयं पर आती है तो पढ़ा लिखा सब भुलाना ही पड़ता है|
अपने राम की पत्नी को फिल्म ज्यादा पसंद नहीं आई और उसके कारण भी बहुत ठोस रूप से उसने अपनेराम के समक्ष रखे|
१. समाज की स्थिति और अपरिवर्तनीय सोच, देखते हुए लड़कियों ने अपनी सीमा स्वयं तय करना जरूरी है| हम २२ वीं सदी की तरफ जा रहे हों पर समाज की सोच और उसका वर्ताव अभी भी १५ वीं सदी का ही है| एक बार कोई हादसा हो गया तो दोष और सज़ा हमेशा से लड़की को ही मिलेगी| “दोस्त” या “फ्रेंड” शब्द बहुत व्यापक है और किसी को दोस्त कहने के पहले सौ बार जाँच और परख की जरूरत है| ये याद रखना जरूरी है की लड़का और लड़की पहले नर और मादा हैं और प्रकृति का नियम इस रिश्ते की क्या परिभाषा करता है|
२. फिल्म का नाम “पिंक” रखने का तर्क निर्माता और निर्देशक का कुछ अलग हो सकता है पर अपनेराम की पत्नी के तर्क अकाट्य है ये उतना ही सच है| इस फिल्म में मुख्य चरित्र की कानूनी समस्या के लिए दीपक सहगल नाम का बहुश्रुत और बहुपठ वकील मिल जाता है और केस का जज भी संवेदनशील और समझदार दिखाया गया है| राजनितिक परिवार का होते हुए भी आरोपी लड़के का परिवार सीमित हस्तक्षेप करता है| वास्तव में यदि देखें तो इस तरह के केस या तो सालों चलते रहते हैं नहीं तो आउट ऑफ़ कोर्ट सेटल हो जाते हैं| राजनीतिक दबाव के कारण तो कुछ मुकदमे दर्ज ही नहीं होते| इस तरह का एक केस हमारे शहर बोकारो में आज से २० एक साल पहले हुआ था और उस समय पीड़िता के साथ बलात्कार के बाद आरोपी नहीं पकडे गए, पीड़िता लड़की कुछ समय बाद पागल हो गई और अंततः उसने आत्महत्या कर ली| मुकदमा चलता रहा पर आरोपी शायद पकडे गए या आज तक छुट्टे घूम रहे हैं हमें नहीं मालूम( हम कितने असंवेदनशील हैं इस समस्या के प्रति यही दर्शाता हुआ हमारा वर्ताव)| इस फिल्म का नाम “पिंक “ इसीलिए रखा गया क्यूंकि ये फिल्म हमारे समाज, राजनीतिक परिवेश और न्याय व्यवस्था की एक (rozy) गुलाबी छबि दिखाने का प्रयास भर है| निर्माता और निर्देशक को वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं| उन्हें सिर्फ “हरे” रंग से मतलब है “पिंक” तो ऐंवे ही कामचलाऊ है|
३. फिल्म के अंत में वकील दीपक सहगल का अंतिम वक्तव्य की जब कोई ना कहे तो उसका अर्थ ना ही होना चाहिए और उसके ना का सम्मान करना जरूरी है, आज के परिपेक्ष्य में बिलकुल गलत और अकल्पनीय है| आज के दौर में जब दबंगई और गुंडई अपने चरम पर है तब कोई भी किसीकी ना सुनना नहीं चाहता| ना कहने का मतलब अपने ऊपर मुसीबत ओढ़ लेना ही है| जब कोई जबरदस्ती पर उतर ही आये तो ना सुनने और समझने की अक्ल क्या उसमे बची रहेगी? इससे पेशतर तो ऐसी परिस्थिति में “ना” फंसना ही है| अब इस ना का मतलब समझ में आ जाये यही बेहतर|
इस तरह “पिंक” नाम की ये फिल्म बहुत पसंद तो नहीं आई पर फिर उस सुलगते प्रश्न को हवा दे गई की क्या इस समाज में नारी का अस्तित्व खतरे में है? सोचते सोचते कब सुबह हो गई अपने राम को पता ही ना चला| सुबह सूरज की पहली किरण के साथ अपनेराम की लिखी एक पुरानी कविता ही इस समस्या का समाधान बन कर सामने आई और अपने राम ने चैन की सांस ली|
इस पुरुष प्रधान समाज में यदि लड़कियां विद्रोह कर दें और विधाता ऐसा कुछ चक्कर चला दे की लड़की जन्म ही ना ले तब? जब तक इस समस्या का हल नहीं मिलता एक भी लड़की इस धरती पर जन्म नहीं लेगी और ये धरती नारी विहीन हो जाएगी तब ही इन नरों को नारी की अस्मिता की अहमियत का अहसास होगा|
आज तो यह स्थिति है की पुरुषों में मर्यादा पुरुषोत्तम और नरों में नरेन्द्र भी नारी जाति का सम्मान अडिग नहीं रख पाए तो हम आप किस खेत की मूली हैं|
खैर..... जो नहीं हो सकता उसकी कल्पना करना ही अपनेराम का काम है क्यूंकि कहते हैं ना की जहाँ न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवी---------------. लीजिये कविता (पुरानी ही सही)को समझने की कोशिश कीजिये और हो सके तो समाज को बदलाव के लिए प्रेरित कीजिये|
अजन्मा दर्द
मैं बोल रही हूँ माँI ! तेरे भीतर से, सहमी सी, डरी सी,
मैं, जिसे बड़े लाड से तू बढ़ा रही है अपनी कोख में, और कर रही है प्रतीक्षा मेरे जन्म की,
मुझे कुछ कहना है माँ, जन्मने से पहले, सुन सकेगी तू मेरी पुकार माँ !
मुझे नहीं जन्म लेना है अभी, परिस्थितियां अभी नहीं हैं ठीक
,
रोज तो दूरदर्शन औ अख़बारों में देख, सहमती है तू और सिसकियाँ भरती है मुझे भींच,
प्रति पल भयाक्रांत होती है दीदी के बारे में सोच कर, जो बड़ी हो रही है दिन रात,
पंख फडफडा कर उड़ने को तैयार, गगन से ऊँची लगाने को छलांग, पर हाथ पकड़ लेती है तू जिसका हर बार,
पंख कतरने का भी तू करती है विचार, क्यूंकि तूने देखे हैं पुरुषों में भी गिद्धों के कई प्रकार,
शायद नोंच भी सही हो तूने कभी, दहलता है दिल भी तेरा ये सोच कर,
तेरी चिर्रैया का भी न नोंच लें मांस, गिद्ध कौए जो फिरते हैं आस पास,
वो तेरी आँखों से दूर होते ही अटक जाती है तेरी सांस
|
घर पड़ोस के सभी पुरुष तुझे शैतान नजर आते हैं, शक से तेरे “मेरे बापू” भी नहीं बच पाते हैं,
दीदी जो भरना चाहती है मुक्त उडान, तेरी रोक टोक से विद्रोही बनी जाती है,
समझती है तुझे उस पर नहीं है भरोसा, नहीं जानती अक्सर अपने ही देते हैं धोखा |
मैं नहीं आना चाहती ऐसी अविश्वास, नफ़रत और वासना से भरी दुनिया में,
जहाँ मेरे सपने कुचले जायेंगे, वासना भरी निगाहें करेंगीं जहाँ मेरा पीछा,
आँखों की बेशर्मी से लोग करेंगे मेरा चीर हरण, हर पल, प्रति पल, जीवन होगा मेरा मरण |
वो ही शायद मेरी पीड़ा अधिक समझते हैं , भ्रूण हत्या का जो समर्थन करते हैं,
वो जानते हैं की समाज हमारा सन्मान नहीं करता, इसलिए बन जाते हैं वो हमारे विघ्नहर्ता,
हमें तिल-तिल मरने देना उन्हें गवारा नहीं, रोज हमारी इज्जत लुटे उन्हें प्यारा नहीं,
जन्म के बाद होने वाली हमारी स्थिति से हैं वो अवगत, सारी त्रासदी से करना चाहतें हैं हमें मुक्त |

मैं भी चाहती हूँ के जन्मूँ तो ऐसी व्यवस्था में, आमूल- चूल परिवर्तन हो जहाँ नारी की अवस्था में,
सिर्फ नाम के लिए जहाँ नारी का सन्मान न हो, नारी का साथ देने पर किसी पुरुष का अपमान न हो,
माँ की तरह बहन बेटी भी हो आदर की पात्र, पैर की जूती, भोग की वस्तु समझे जाने से मिले उन्हें निज़ात |
जब ऐसी व्यवस्था इस समाज में , देश में आ जाएगी, तेरी ये बेटी ख़ुशी से तेरी कोख सजाएगी,
फ़िलहाल तो ढूँढ कोई नीम हकीम, डॉक्टर हमदर्द , पैसे के लालच में ही सही जो कर दे तेरी कोख सर्द,
मैं सच कहती हूँ माँ, नहीं मैं नहीं जन्मना चाहती अभी,
क्यूंकि मैं नहीं समझ पाई तेरी सिसकियों का अर्थ, मुझे भींच जो तू भरती है कभी – कभी,
मैं सच कहती हूँ माँ, नहीं मैं नहीं जन्मना चाहती अभी, क्यूंकि नहीं जानती
मेरा अस्तित्व जो तेरे भीतर आकार है ले रहा, वो परिणाम है तेरे प्यार का या अनिर्बाधित बलात्कार का |
नहीं मैं नहीं जन्मना चाहती माँ ,
सहमी सी, डरी सी,
तू सुन रही हैं न माँ,
मैं बोल रही हूँ तेरे भीतर से
- अवी घाणेकर

एक और ख़त बिटिया के नाम

ऐश्वर्या मेरा तोता २१ का हो रहा है 16 तारिख को| क्यूंकि मैं उस दिन ट्रेवल कर रहा हूँगा इसलिए आज ही उसे ढेरों आशीर्वाद और जन्मदिन की शुभकामनाएं..........
ऐशू गोड गैशु
तू २१ साल की हो गई पता ही नहीं चला रे! मुझे तो तू अभी भी वही छुटकू सी गुडिया लगती है, तेरी बदमाशियां, तेरा भोला पन आँखों के सामने एक फिल्म चलने लगती है तेरी याद आते ही|
तू जब पैदा हुई तो मैं और तेरी आई एक मिलीजुली सी ख़ुशी और चिंता में घिर गए थे| अक्सर होता ये है कि मां बाप बच्चों की पैदाईश का समय प्लान कर लेते हैं पर हम दोनों कुछ प्लान व्लान नहीं कर पाए या ये कहें की प्लान नहीं किया| अप्पू ताई साडे पांच साल कि होगी जब एक दिन तेरे आने की आहट आई को महसूस हुई| इस समय तक हम दोनों कुछ सम्हल गए थे और हमने तेरे आने का इन्तजार शुरू कर दिया|
16 ऑक्टोबर 1995 नवरात्र के समय तू एक देवी सी हमारे घर आई| हाँ देवी जैसी रे, तेरी आंखें एकदम किसी देवी की तरह ऊपर की ओर उठी हुई थीं, तेरा रूप एकदम दुर्गा देवी के चित्र की तरह था, अस्पताल में सब अचंभित आई को कहने लगे की आपके घर लक्षी आई है और तभी तेरा नाम मैंने सोच लिया “ ऐश्वर्या” , ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी, दुर्गा का एक और नाम|
लोग कहते हैं की ये नाम मैंने उस समय मिस वर्ल्ड बनी ऐश्वर्या राय के नाम पर रखा था पर ऐसा नहीं था ये नाम तेरी आंखों और तेरे रूप के कारण था एक देवी का नाम और अपूर्वा से मिलता जुलता|
उस समय तेरे चेहरे को देख कर मैं तो बहुत खुश था पर फिर पता चला की तेरी आंखें किसी देवी तरह किसी चमत्कार के कारण नहीं कुछ मेडिकल प्रोब्लेम्स के कारण हैं| इसे शायद सिन ओस्टोसिस कहते हैं| तेरे माथे और सर की सारी हड्डियाँ जुडी हुई हैं और जैसा की हर नार्मल बच्चे का होता है उसके सर के ऊपर के हिस्से की हड्डियाँ जुडी नहीं होती, वैसा नहीं था| तेरे चेहरे और सर को समय के साथ बड़ा होने के लिए कोई जगह नहीं थी और इस लिए तेरा माथा आगे की और बढ़ रहा था जिससे तेरी आंखें सीधी होने की बजाय ऊपर की ओर चली गईं थीं| मैं पागल सोच रहा था की मेरे घर देवी का चमत्कार हो गया पर अब पता चला की तू तो बहुत क्रिटिकल सिचुएशन में है| अब शुरू हुई तेरे माथे को ठीक करने की क़वायद, दिन रात डॉक्टरों से चर्चा और निदान ढून्ढने की जद्दोजहद|
तू साढ़े तीन महीने की हो गई और तेरा माथा अब कोनिकल आकार में आगे की ओर बढ़ने लगा| इसी समय, एक नामी न्यूरो सर्जन डॉ कारापुरकर का पता चला जो मुंबई के के. इ. ऍम. हॉस्पिटल में थे, और बच्चों के ऑपरेशन करने में अव्वल दर्जे के सर्जन थे| हमने संपर्क किया और तुझे ले कर चल पड़े बम्बई| सारे इन्वेस्टीगेशन होने के बाद उन्होंने ऑपरेशन का समय तय किया और हमें बताया की तेरा पूरा माथा काट कर हटाया जायेगा, और तेरे चेहरे की हड्डियों से ही तेरे माथे को फिर नया आकार दिया जायेगा| तेरी उन देवी जैसी आँखों को भी सीधा कर के ठीक किया जायेगा| ये सब हम दोनों के लिये भयंकर था, हमारी इत्तू सी बच्ची का माथा काटेंगे, और ब्रेन को कुछ हुआ तो? अब तो हम दोनों अजीब से डर में ऑपरेशन के दिन की राह देख रहे थे|
26 मार्च 1996 ये दिन था जब इत्तू सी तू डॉक्टरों की छुरियों और चाकुओं का सामना करने ऑपरेशन थियेटर में ले जाई गई| सुबह 8 बजे तू अन्दर गई और शाम 6 बजे तक हम दोनों की सांसे हलक में अटकी हुई थीं| ग्यारह घंटे बाद जब शाम को डॉक्टर बाहर आये तो पता चला की ऑपरेशन तो ठीक हो गया पर एक जूनियर की थोड़ी सी लापरवाही के कारण माथे की हड्डी काटते वक्त दिमाग के ऊपर की झिल्ली कट गई और उसमें से फ्लूइड बाहर आने लगा जिसे मेडिकल टर्म में CSF कहते हैं| अब तेरा माथा तो ठीक दिखने लगा पर तेरे माथे केे ठीक ऊपर बायीं तरफ एक उभार हो गया| उसे वैसा ही छोड़ दिया गया और कहा की इसके ऊपर हड्डी आ जाएगी, जून 1996 में फिर आने को कहा गया| ढेरों दवाईयां और सहस्त्रों चिंताएं ले कर हम वापस घर आ गए|
अब सबसे बड़ा काम था तुझे रोने न देना क्यूंकि डॉक्टरों ने कहा की अगर ये रोई तो वो झिल्ली(dura) तनाव की स्थिति में आ जायेगी और उसका असर तेरे दिमाग के विकास पर पड सकता है| चार महीने की छोटी बच्ची को रोने से बचाना मतलब एवरेस्ट की चढ़ाई से भी मुश्किल काम था| खैर आजी और आई के सुरक्षित हाथों ने वो समय बड़ी खूबी से निकाल लिया| अब वो डॉक्टर जो बम्बई में थे दिल्ली के अपोलो अस्पताल में चले आये थे इसलिए जून 96 मे हम तुझे ले कर दिल्ली गए| डॉक्टर ने देख कर कहा की एक और ऑपरेशन करना पड़ेगा क्यूंकि खाली छोड़ी जगह पर हड्डी नहीं आ रही| एक बाहरी graft लगाना पड़ेगा| हम तुझे ले कर AIIMS दिल्ली आये और वहां काम करने वाले मेरे भाई डॉ शशांक के जरिये वहां के न्यूरो सर्जन से मिले| अभी तू सिर्फ 6 महीने की होगी| तेरा फिर एक ऑपरेशन हुआ और डॉक्टरों ने हड्डी के graft को तारों से बांध कर उस खाली जगह को बंद किया| फिर वही प्रतिबन्ध, तुझे रोने नहीं देना, सर पर चोट न लगने देना आदि आदि|
अब तू तो चलने की कोशिशें करने लगी थी और कुछ दिनों में वॉकर का सहारा छोड़ सरपट दौड़ने लगी| घर के एक कोने से दूसरे तक, फर्नीचर को ठोकरे मारते यूँ फर्राटे से दौडती जैसे उसैन बोल्ट की आत्मा तुझमें घुस गई हो| इधर हम सब हाय हुय करते रह जाते पर तू मानती ही ना थी| तुझे डांट डपट भी नहीं करनी थी क्यूंकि रोने न देना था| अब तेरा पहला जन्म दिन भी आ गया था और तेरी बदमाशियां दिनबदिन बढती जा रहीं थीं| सबसे नजर छुपा कर उस graft में ऊँगली डाल डाल कर तूने उस graft को ढीला कर दिया और यहाँ तक की वो जो तार बंधी थी वो बाहर आ गई| अब फिर एक नया ऑपरेशन और इस बार यहीं अपने बोकारो में ही| अबकी बार उस पुराने graft को निकाल कर नया graft लगाया गया और उसे स्वतः घुलने वाले टाँके लगाये कि तू अब उसमे उंगली ना डाल पाए| डॉक्टर ने कहा की इसके बाद अब जब तू १४/१५ साल की हो जाएगी तब एक और आखिरी ऑपरेशन होगा तब तक चोट वगैरे से तुझे बचना था|
तू बड़ी होती गई और अपनी बदमाशियों और मस्तियों से हम सबको लुभाती रही| तू अब तक ये जान गई थी कि तुझे किसी चीज़ के लिए हम ना नहीं कहते और इसका तूने भरपूर फायदा भी उठाया| तेरी बुआ तो तुझे मेरा तोता कहने लगी थी| असल में एक कहानी में एक राक्षस की जान उसके तोते में थी| इसी कहानी का हवाला देते हुए तेरी बुआ ने मुझे राक्षस भी कह डाला यह बात अलग है| एक और ख़ास बात कि तुझे बहुत सुरीली आवाज मिली थी| तू अब गाना गाने लगी और मैं तो जैसे तेरा गाना सुन कर पागल ही हो जाता| ये भी एक कारण था तेरी हर बात मानने का|
अपनी सभी इच्छा, आकांक्षाओं को येन केन प्रकारेण हासिल करती हुई तू अब दसवीं में आ गई थी बोर्ड की परीक्षा के बाद तेरा एक और ऑपरेशन यहीं बोकारो में हुआ और लगा जैसे हमने गंगा नहा ली| अब कोई चिंता नहीं थी, ऑपरेशन ठीक हुआ और सारी परेशानियाँ दूर हो गईं| और दो तीन साल गुजर गए और अब तू बंगलुरु में दांतों की डॉक्टर बनने की तयारी में है|
इन २१ सालों में ये दूसरी बार है की हम तेरे जन्मदिन पर तेरे साथ नहीं हैं| तू १८०० किलोमीटर दूर बंगलुरु में है और हम यहाँ बोकारो में| अब शायद कुछ ही बार हम तेरे जन्मदिन में साथ रहेंगे और फिर तुझे धीरे धीरे आदत हो जाएगी हमारे ना रहने की| लोग कहते हैं की लड़की पराया धन होती है और एक बार घर से बाहर निकली तो फिर उसका घर दूर ही होता जाता है| मैं देख रहा हूँ न तेरी दीदी को जो अब घर आती है तो बस ४ दिनों के लिए, अब हम सब जुड़े हैं तो बस फ़ोन की तारों से| तू भी अब बड़ी हो गई है, अपने फैसले खुद लेने की ताकत और अक्ल तुझे आने लगी है,| अच्छा है, पर एक बात हमेशा ध्यान रखना, तेरे भोले पन के कारण तू हरेक को उसके बाहरी आवेश से ही आंकती है| ये सही नहीं है लोगों के दांत दिखाने के और, और खाने के और होते हैं| किसी चीज़ के भी बारे में निर्णय लेने के पहले दस बार सोचना और समझना| और ना समझ आये तो हम तो हैं हीं, तेरी मदद के लिए| हमेशा अपनी आई और अप्पू ताई का आदर्श अपने सामने रखना, उनके जो गुण हैं उन्हें आत्मसात करना और कुछ अवगुण हैं तो उनसे सीख लेना| तेरे इक्कीसवें जन्मदिन पर हम साथ नहीं है पर ये राक्षस अपने तोते से बहुत प्यार करता है ये याद रखना| ऐसी ही दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर और अपने क्षेत्र में ऊँचा नाम कर यही आशीर्वाद है तुझे| संभल कर रहना और गाना गाते और सुनाते रहना|

Thursday, April 28, 2016

यकीन



तुझसे हो जाती है मुलाकात जिस रोज,
जिंदगी पर यकीं आ जाता है|
दिल के कोने में दुबकी हुईं, सारी,
ख्वाहिशों पर यकीं आ जाता है|
तेरी महकती साँसों के घेरे से,
बहारों पर यकीं आ जाता है|
तेरी घनेरी जुल्फों के साये में, अवी,
इन घटाओं पर यकीं आ जाता है|
तेरी आँखों में आंसुओं से हमें,
बारिशों पर यकीं आ जाता है|
तू है मांझी जो मेरी कश्ती का,
तब किनारों पे यकीं आ जाता है|
तू जो हौले से कभी पुकारे है हमें,
अपने होने पे हमको यकीं आ जाता है|

तुझसे मिलते ही मिल जाते हैं सारे जवाब,
इन सवालों पर भी यकीं आ जाता है|
तेरे दो लफ्ज प्यार के सुन कर,
इक हजारों पर यकीं आ जाता है|
दो घडी जो तेरा साथ हो जाये,
सारे रिश्तो पे यकीं आ जाता है|
तेरा ज़ज्बा औ कद-ए-किरदार देख कर,
अब पहाड़ों पर भी यकीं आ जाता है|
तेरी रूह की पाकीज़गी से सनम,
अब खुदाओं पर भी यकीं आ जाता है|
             अवी घाणेकर

Thursday, April 21, 2016

दुआ



कतरा कतरा जिंदगी जी हमने, और ना किया कोई शिकवा,
मौत मगर एक इकट्ठा ही मिले ये दुआ करिये||

कोशिशे लाख हुईं  कि, ख़्वाब सच हों  वो अनदेखे,
अब मगर नींद भी आ जाये ये दुआ करिये||


यूँ तो सुनते हैं कि फासले अच्छे हैं मुहब्बत के लिए,
विसाल-ए-यार भी अब हो ही जाये, ये दुआ करिये||


खिजां की ख़लिश क्या कम थी औ उस पे ये ताब-ए-खुर्शीद का कहर,
बहारें फिर से आएँगी , ये दुआ करिये||


कुछ सोच कर नहीं थामी थी कलम मैंने अवी,
अब मगर गज़ल बन ही जाये, ये दुआ करिये|

Saturday, April 9, 2016

ई और आ


अपने राम बहुत नाराज हैं कोर्ट वगैरे की धमकी तक देना चाहते हैं, इतने व्यथित हैं की किसी काम में मन नहीं लग रहा उनका, बस बौराए से इधर उधर घूम रहे हैं| अब तुम कहोगे भैय्ये की क्या बात हैगी जो अपने राम  इतने गुस्से हो गए और वो भी किस पर भैय्ये?  तो सुनो अब ....
पिछले दिनों एक फिलम आई है अपने सहर में, की और का, इसकी कहानी में जो हीरो हैगा, हॉउस हसबेंड, वो घर पे रह कर खाना वाना बनता हैगा और घर सम्हालता हैगा और हिरोईनी बाहर काम करने जाती हैगी| जे ष्टोरी तो भैय्ये हमारी पत्नी की लिखी हुई हैगी, ३० साल पहले!

 इस कहानी को तो भैय्ये अपन ३० सालों से जी रहे हैंगे और कर रहे हैंगे हॉउस हसबेंड गिरी, तो उस ससुर बल्कि के बाल्की, नाम भी ऐसा धरा है अपना कि नहाने की इच्छा हो रही है अपनी......... इससे तो बल्कि ना ही रखता तो ठीक होता| देखा भैय्ये कित्ता परेसान हैंगे अपनेराम की क्या कह रहे थे वो भी भूल के कुछ और ही लाइन पकड़ ली| खैर उस अजब नाम वारे ने हमारी जिंदगी पे फिलम कैसे बना दी सुसरी और हमसे पूछा भी नहीं, अच्छा हमसे नहीं पूछा तो नहीं सही हमारी बेगम से तो परमिसन लेनी चाहिए थी जिनकी कहानी हैगी|
जे बात इत्ती परेसान कर रही हैगी की हमने लगा दिया फ़ोन उस बल्कि को और सुना दी उसको खरी खोटी... बल्कि खरी खरी| अरे जब तुम फिल्लम वाले कहते हो की हमारी निजी जिंदगी में दखल ना दो तो तुम को किसने जे परमिसन दे दी हम आम आदमी की जिंदगी में घुसने की| घुसे तो घुसे  सारी दुनिया को बड़ी बड़ी पिक्चर दिखाने की क्या जरुअत हो गई थी भैय्ये| चुपके से अपने दो चार आदमियों को दिखा लेते(बैसे इत्ते ही लोगों ने देखी हैगी हमारी जानकारी में)| सरे आम उस सुसरे बल्कि ने अपनेराम की बेईज्जती खराब कर के रख दी हैगी| अब जो भी मिलता है बड़े प्यार से पूछता है भैय्ये “की और का” देखी, अब क्या जवाब दें हम| अच्छा भैय्ये कहानी तो चुराई सो चुराई, ससुर, कहानी का नाम भी चुरा लिया, बस मीटर बदल कर| हमारी बेगम की कहानी का नाम था “ई और आ”| हमारी मदर टंग में औरत को “बाई” और आदमी को “बुआ”(बुवा) कहते हैंगे तो उसी हिसाब से रखा था “ई और आ”| हमारी बात सुन कर वो अजब नाम धारी आदमी कहने लगा की क्या प्रूफ है भैय्ये तुम्हारे पास की ये फिल्लम तुम्हारी कहानी पर बनी है, ये हमारी कहानी हैगी और इसे हमने ही लिखा हैगा| और तो और ससुर कहने लगा की तुम तो स्साले “११ महीने वाले भारत” हो गए, एकदम असहिष्णु और दूसरों की स्वतंत्रता छीनने वाले दक्सिन पंथी|


तुम ससुर हमारी लाइफ में घुसी आओ और हम सहिष्णु बने रहें, हमें भरे बाज़ार नंगा करो और उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहो| हद हो गई भैय्ये तुम तो फिल्लम वाले हो फिर जे बिस्वबिद्यालय वाली भासा का परयोग काहे कर रहे| अभी तक तो तुम फिल्लम वाले बस अपनी बीबी से चाय पे चर्चा को सार्बजनिक कर रहे थे,  पर हमारे फटे में टांग अड़ाने का तुम्हे किसने परवाना दे दिया भैय्ये| तुम्हे लिखनी है कहानी तो अपने ऊपर लिखो, ससुर हमारी कहानी मति चुराओ |प्रूफ व्रूफ़ की बात भी मति करो तुम समझे.....
अरे ससुर के नाती “बल्कि”, ३० साल से जो जिंदगी हम जी रहे हैं उसका प्रूफ दें अब तुझे| जे तो वही हो गया की हम हम हैं इसका सबूत दें| चलो हम हम हैं का सबूत हमारे आधार कार्ड से मिल जायेगा पर हमारी जिंदगी की चाल के  सबूत के लिए तो साला कोई कार्ड नहीं हैगा तो कैसे दें प्रूफ| आधार कार्ड में तो न लिखा हैगा पेशा – हॉउस हसबेंड, सेल्फ इम्प्लोयेड भले लिखा हो, औरत लोग का तो लिख देवें हैं  “गृहिणी”
जब हमने और दो चार खरी खरी सुनाई तो मांडवली पे आ गया ससुर कहने लगा “ठीक है हम मान लेंगे की कहानी तुम्हारी बेगम ने लिखी और दे भी देंगे क्रेडिट उसको और कुछ पैसे तुम्हे भी पर एक सरत है की तुम्हे “भारत माता की जय” बोलना होगा २४ घंटे में १०० बार”| जे तो भैय्ये हद से भी हद हो गई, हम  ना बोलें तो आधी खाकी वालों से मार खाएं और बोलें तो पूरी खाकी वालों का डंडा तो लाजिमी हैगा पड़ना| अच्छी मुसीबत में डाल दिया इस बल्कि ने तो अपनेराम को ...

 हमें बस अब आप सब का ही सहारा हैगा, भैय्ये जितने भी हमारी जिंदगी से बाकिफ हैं और जो जो हमारी बेगम को जानते हैंगे सब से हाथ जोड़ कर बिनती कर रहे हैंगे अपनेराम की आओ भैय्ये प्रूफ दे दो की जे कहानी हमारी है| इन्तेजार कर रहे हैंगे भैय्ये, अपने राम की इत्ती मदद तो करई दो अब|