काम के सिलसिले में मुझे हर हफ्ते ही ट्रेन से छोटी छोटी यात्रायें करनी पड़ती हैं| रांची से मेरे शहर बोकारो जाते वक्त ट्रेन में कई तरह के लोगों से सामना होता है| ट्रेनों में मूंगफली, झाल मुड़ी ,चाय आदि बेचने वाले कई फेरीवाले आते जाते हैं और लोगों के खान पान का ध्यान रखते हैं|
मैंने देखा है की मूंगफली खा कर छिलके अपनी सीट के नीचे फेंकने में यात्रियों
को बड़ा मजा आता है और फिर उन छिलकों पर चलने से आने वाली मजेदार आवाज का आनन्द तो
बिरला ही होता है| झाल मुड़ी के अजीब और
छोटे से ठोंगे से मुड़ी गिराने का मजा और ट्रेन की खिडकियों से आने वाली हवा पर
तैरते उन मुड़ी के दानों का दूसरे यात्रियों पर गिरना कितना सुखद अनुभव है| चाय
पीकर उस कागज़ के कप को तोड़ मोड़ कर बगल वाली सीट के नीचे फेंकना दिल को एक स्वर्गिक
आनंद देता है| खैनी खा कर थूकना तो अपने आप में परमानन्द है| खिड़की से हाथ और पानी
की बोतल निकाल कर सीट पर बैठे बैठे हाथ धोना और अगली/पिछली सीटों पर
बैठे यात्रियों को नहलाने की अधूरी कोशिश की तो बात ही निराली है| शौचालय, वाश बेसिन इत्यादि को गन्दा करना भी
हमें असीम सुख की अनुभूति कराता है| भाई साहब , पान खा कर पीक से वाश बेसिन को रंगना भी एक कला है और हम भारतीय
तो इस कला में अखंड हैं| कोई हमारा हाथ नहीं पकड सकता शौचालय को गंदा करने में| अच्छा ऐसा नहीं है की ये सब बस साधारण श्रेणी के
डिब्बों या ट्रेनों में ही नज़र आता है, राजधानी, शताब्दी आदि ट्रेनों में,
वातानुकूलित डिब्बों में भी अमूमन यही स्थिति देखने को मिलती है| इसका मतलब क्या
है ये सोचने को मजबूर करता है| वातानुकूलित
डिब्बों में एक विशिष्ट वर्ग, उच्च मध्यम और उच्च वर्ग ही अधिकतर सफ़र करता
है, ये सारे लोग अक्सर पढ़े लिखे, और तथाकथित संभ्रांत होते है| परन्तु साहब आनंद
लेने का हक तो इन्हें भी है तो ये क्यूँ चूकें| आज की स्थिति देखें तो ट्रेनों में
सफ़र करना एक बड़े महायुद्ध से भी भयंकर लगता है मुझे| महायुद्ध के बाद जैसी दुर्गन्ध,
महामारी आदि फैलती है, कमोबेश वही दुर्गन्ध आदि आपको भारतीय रेल में अनुभव होगी|
भारतीय रेल ने , ट्रेनों में, स्टेशनों में
जगह जगह सूचना लिखी है की ट्रेन को, स्टेशन परिसर को साफ़ रखें, ये आपकी राष्ट्रीय संपत्ति है इसकी
रक्षा करें| लेकिन इसको मूर्तरूप देने के लिए कोई कार्यक्रम रेल के पास नहीं है, अजी
बस लिख देने से अगर हम समझ जाते तो बात ही क्या थी| ऐसा भी नहीं की आप गन्दगी
फ़ैलाने वाले अपने सह यात्रियों को समझा कर , बोल कर वैसा करने से रोक सकते हैं|
मेरे साथ अक्सर मेरे सहयात्रियों की बकझक हो जाया करती है इस विषय पर| उन्हें
रोकिये या समझाइये तो उनका जवाब बड़ा
प्यारा होता है| “ हम क्या आपके घर में गंद फैला रहे हैं, जाइये अपना काम करिये|” कुछ लोग समझ जाते हैं और फेंकी हुई गंदगी उठा
कर ट्रेन के बजबजाते डस्ट बिन में फेंक आतें है| परन्तु जाते जाते कह ही जाते हैं “ ये अंकल तो साला बड़ा खूसट है”| आज कल
मैं एक झोला लिए चलता हूँ और डिब्बे में मेरे आस पास फेंकी हुई गन्दगी, छिलके आदि
उठा कर उस झोले में डाल लेता हूँ और स्टेशन पर रखी कचरा पेटी में छोड़ आता हूँ|
मेरे इस काम से गन्दगी फ़ैलाने वाले कुछ
यात्री सुधर रहे हैं ऐसा लगता है परन्तु सुधरने वालों का प्रतिशत, मुझे
पागल समझने वालों से कहीं कम है|
भारतीय रेल भी डिब्बों में डस्ट बिन लगा कर और सूचनाएं चिपका कर अपने कर्तव्य
की इतिश्री कर लेती है| उन कचरा पेटियों को खाली करना, सफाई का प्रतिबद्धता से
पालन करना और करवाने से उनका कोई सरोकार नहीं है| साल में एक हफ्ता सफाई अभियान
और बड़े साहब के निरीक्षण दौरे के समय इन
सब बातों का ख्याल रख लेते हैं, अब साल भर अगर सफाई करते रहे तो बाकि का काम कौन
करेगा साहब|
करीब करीब यही माहौल आप अपने घर के आस पास भी देखते होंगे, अपने घर का कचरा,
सड़क पर डालना आम बात है| अब तुझे तकलीफ होती है तो तू साफ कर सड़क, मैंने तो अपना
काम कर लिया| परिणामों की परवाह न हमने कभी की है और न करेंगें| गन्दगी से होने
वाली बीमारियाँ होती हैं तो सरकार और नगर निगम को गाली देने का अवसर रहेगा और
मोर्चा आदि निकालेंगे तो अख़बार में फोटो भी तो छपेगी, सफाई का ध्यान रखने से कौन
पूछेगा हमें|
मेरे कार्यालय के पास सड़क किनारे एक सुलभ शौचालय है, उसके सामने ही करीब
८/१० ठेले सुबह शाम लगते हैं जिन पर समोसे, कचौड़ी, जिलेबी, चाइनीस
इत्यादि बिकता है| सुलभ शौचालय से मात्र
२० फीट की दूरी पर लगे इन ठेलों पर अतुलनीय भीड़ उन व्यंजनों का आनंद लेती रहती है,
शौचालय के दरवाजे पर खड़े हो कर| क्या विरोधाभास है, परन्तु किसीको को कोई परवाह
नहीं| उस भीड़ के कारण शौचालय का सही उपयोग
करने वाली जनता अन्दर जा ही नहीं पाती और सड़क किनारे ही फारिग हो लेती है| जय हो!
तो, निष्कर्ष यह की हम नहीं सुधरेंगे|
-
अवी घाणेकर
०८.११.२०१३
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