रात के आसमान में छिटकी चांदनी में अटखेलियाँ करते चाँद को देख कर अपना
अकेलापन तीव्रता से खलने लगा| हफ्ते में 6 दिन मैं अकेला रहता हूँ और एक, सवा दिन
भगवान के भोग की तरह अपने परिवार के साथ| ये जरूरी नहीं की हर हफ्ते मुझे ये
प्रसाद मिल ही जाये और मेरे अकेलेपन पर परिवार के साथ का मरहम लग ही जाये| दिन तो
ऑफिस की सरगर्मियों में निकल जाता है पर शाम होते ही इस अकेलेपन का अँधेरा मेरे
जीवन में छाने लगता है| मैं आजकल स्वंय को सूर्य समझने लगा हूँ क्यूंकि सूर्य की
भांति ही मैं अकेलेपन के दाह में जल रहा हूँ| सूर्य का तेज प्रकाश और गर्मी उसके
अकेलेपन के कारण ही तो नहीं, सारी चांदनी तो चाँद के भाग्य में आ गईं और सूर्य जल
रहा है विरह में एक अदद चांदनी के|
मैं पूर्व जन्म या भाग्य पर विश्वास तो नहीं करता पर मजबूर हूँ ये सोचने पर की
क्या कारण है मेरे अकेलेपन का| इस अकेलेपन के कारण मैं अंतर्मुखी होता जा रहा हूँ
और परिवार के साथ रहने पर भी उस आनंद को महसूस करना मेरे लिए असंभव हो रहा है| मेरे
स्वभाव में अब तीखापन पनपने लगा है| बात बात पर चिडचिडाना, परिवार में पत्नी,
बच्चों के प्रत्येक कार्य में मीन मेख निकालना मेरी आदत बन रही है| आज स्थिति ये
है की शनिवार आते ही मेरा परिवार एक अज्ञात मानसिक तनाव में आ जाता है| मुझे मित्र
भी नहीं हैं जिनके पास मेरे लिए समय हो और मैं अपनी समस्या का समाधान उनसे पूछ
लूं, वस्तुतः मेरा कोई मित्र है ही नहीं| मैं दो अलग- अलग शहरों में रहता हूँ ,
हफ्ते भर सुबह से शाम ऑफिस की झंझटों में बीतता है, रात, पेट की भूख शांत करने में और नींद को मनाने में | सप्ताहांत
परिवार के साथ रहने और घर के छोटे मोटे कार्यों में बीत जाता है| मित्रता के लिए
मेरे पास समय है कहाँ? मुझे नहीं मालूम और किसीके साथ ऐसी परिस्थिति है या नहीं पर मेरी बहन के साथ भी यही स्थिति है|
उसका मामला तो और भी विचित्र है| वो कहीं नौकरी नहीं करती तो दिन भर भी उसे
निर्जीव वस्तुओं के साथ बिताना पड़ता है| मेरे बहनोई दूसरे शहर में नौकरी करते हैं
और महीने –दो महीने में एक बार ही आ पाते हैं| कैसे सामना करती होगी वो उस अकेलेपन
का इतनी लम्बी अवधि तक |खैर एक बात अच्छी है की उसे दोस्तों की कमी नहीं पर फिर भी
परिवार की कमी तो दोस्त पूरा नहीं कर सकते| परिस्थितियां ऐसी बन रही हैं की शायद
उसका ये वनवास जल्दी ही ख़त्म हो जाएगा| आशा है और शुभकामना भी कि उसे इस वनवास का
अब कभी सामना न करना पड़े|
मैं तो शायद अब इस अकेलेपन का आदी हो रहा हूँ और भीड़ में भी खुद को अकेला ही
महसूस करता हूँ| मेरे इस अकेलेपन के कारण मेरे अपने मुझसे दूर हो रहे हैं, कब तक
जीना है मुझे ये शापित जीवन| कोई तो कहीं होगा जो कर सके मुझे इस श्राप से मुक्त|
मुझे सूर्य सी प्रखरता और दाहकता नहीं चाहिए मुझे अपेक्षा है उस की, जो चांदनी से
शीतल अपने प्रेम सरोवर में मुझे भिगो सके और शांत कर सके इस दाह को| मैंने रात का
आसमान देखना छोड़ दिया है, मैं बंद कर लेता
हूँ स्वयं को ४ दीवारों और एक छत के अन्दर सुबह तक जब तक फिर वो अकेला सूर्य मुझे
न दिखे| और फिर सुबह से शाम हम दो अकेले बाँटते हैं एक दूसरे के सुख दुःख, जलते
हुए विरह में अपनी अपनी चांदनी के|
अवी घाणेकर
२५.११.२०१३
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