अपने राम जरा घर घुस्सू टाइप के आदमी हैं, रात बेरात इन्हें कहीं जाना अच्छा नहीं लगता, वैसे भी अगर बाहर कोई काम ना हो तो दिन में भी अपने राम घर पर ही रहना पसंद करते हैं| लेकिन कल रात बहुत हिम्मत करके पत्नी के आग्रह पर अपनेराम नाईट शो फिल्म देखने राजी हो गए| फिल्म थी “पिंक”| हॉल में गिने चुने २०/२२ लोग थे , फिल्म शुरू हुई, शुरुवाती दौर में फिल्म समझ नहीं आ रही थी, लेकिन सभी लोग दम साधे बैठे रहे, लगता है सभी फिल्म का रिव्यू पढ़ कर आये थे| धीरे धीरे फिल्म कुछ कुछ पल्ले पड़ने लगी और समझ आया कि फिल्म सदियों से चली आ रही समस्या पर केन्द्रित है| वही, चिरंतन अनुत्तरित प्रश्न! नर और नारी के लिए परंपरागत और रुढ़िवादी अलग अलग मापदंड| नर को सब माफ़ और नारी को अनगिनत वर्जनाएं| इस विषय पर कई सदियों से बहस चल रही है पर इसका ठोस उपाय अब तक नहीं मिला| अपनेराम सदा से नारी पर लगी इन वर्जनाओं से असहमत हैं और अपनेराम का आचरण भी उनकी अपनी विचार धारा की तरह अपक्षपाती रहा है| इस सन्दर्भ में अपनेराम काफी कुछ लिखते रहे हैं (अब उसे पढ़ता और उस पर कोई अमल करता नहीं ये अलग बात है) उनका लिखा “व्रत वैकल्य और पुरुष” लेख काफी लोगों ने सराहा पर जब बात स्वयं पर आती है तो पढ़ा लिखा सब भुलाना ही पड़ता है|
अपने राम की पत्नी को फिल्म ज्यादा पसंद नहीं आई और उसके कारण भी बहुत ठोस रूप से उसने अपनेराम के समक्ष रखे|
१. समाज की स्थिति और अपरिवर्तनीय सोच, देखते हुए लड़कियों ने अपनी सीमा स्वयं तय करना जरूरी है| हम २२ वीं सदी की तरफ जा रहे हों पर समाज की सोच और उसका वर्ताव अभी भी १५ वीं सदी का ही है| एक बार कोई हादसा हो गया तो दोष और सज़ा हमेशा से लड़की को ही मिलेगी| “दोस्त” या “फ्रेंड” शब्द बहुत व्यापक है और किसी को दोस्त कहने के पहले सौ बार जाँच और परख की जरूरत है| ये याद रखना जरूरी है की लड़का और लड़की पहले नर और मादा हैं और प्रकृति का नियम इस रिश्ते की क्या परिभाषा करता है|
२. फिल्म का नाम “पिंक” रखने का तर्क निर्माता और निर्देशक का कुछ अलग हो सकता है पर अपनेराम की पत्नी के तर्क अकाट्य है ये उतना ही सच है| इस फिल्म में मुख्य चरित्र की कानूनी समस्या के लिए दीपक सहगल नाम का बहुश्रुत और बहुपठ वकील मिल जाता है और केस का जज भी संवेदनशील और समझदार दिखाया गया है| राजनितिक परिवार का होते हुए भी आरोपी लड़के का परिवार सीमित हस्तक्षेप करता है| वास्तव में यदि देखें तो इस तरह के केस या तो सालों चलते रहते हैं नहीं तो आउट ऑफ़ कोर्ट सेटल हो जाते हैं| राजनीतिक दबाव के कारण तो कुछ मुकदमे दर्ज ही नहीं होते| इस तरह का एक केस हमारे शहर बोकारो में आज से २० एक साल पहले हुआ था और उस समय पीड़िता के साथ बलात्कार के बाद आरोपी नहीं पकडे गए, पीड़िता लड़की कुछ समय बाद पागल हो गई और अंततः उसने आत्महत्या कर ली| मुकदमा चलता रहा पर आरोपी शायद पकडे गए या आज तक छुट्टे घूम रहे हैं हमें नहीं मालूम( हम कितने असंवेदनशील हैं इस समस्या के प्रति यही दर्शाता हुआ हमारा वर्ताव)| इस फिल्म का नाम “पिंक “ इसीलिए रखा गया क्यूंकि ये फिल्म हमारे समाज, राजनीतिक परिवेश और न्याय व्यवस्था की एक (rozy) गुलाबी छबि दिखाने का प्रयास भर है| निर्माता और निर्देशक को वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं| उन्हें सिर्फ “हरे” रंग से मतलब है “पिंक” तो ऐंवे ही कामचलाऊ है|
३. फिल्म के अंत में वकील दीपक सहगल का अंतिम वक्तव्य की जब कोई ना कहे तो उसका अर्थ ना ही होना चाहिए और उसके ना का सम्मान करना जरूरी है, आज के परिपेक्ष्य में बिलकुल गलत और अकल्पनीय है| आज के दौर में जब दबंगई और गुंडई अपने चरम पर है तब कोई भी किसीकी ना सुनना नहीं चाहता| ना कहने का मतलब अपने ऊपर मुसीबत ओढ़ लेना ही है| जब कोई जबरदस्ती पर उतर ही आये तो ना सुनने और समझने की अक्ल क्या उसमे बची रहेगी? इससे पेशतर तो ऐसी परिस्थिति में “ना” फंसना ही है| अब इस ना का मतलब समझ में आ जाये यही बेहतर|
इस तरह “पिंक” नाम की ये फिल्म बहुत पसंद तो नहीं आई पर फिर उस सुलगते प्रश्न को हवा दे गई की क्या इस समाज में नारी का अस्तित्व खतरे में है? सोचते सोचते कब सुबह हो गई अपने राम को पता ही ना चला| सुबह सूरज की पहली किरण के साथ अपनेराम की लिखी एक पुरानी कविता ही इस समस्या का समाधान बन कर सामने आई और अपने राम ने चैन की सांस ली|
इस पुरुष प्रधान समाज में यदि लड़कियां विद्रोह कर दें और विधाता ऐसा कुछ चक्कर चला दे की लड़की जन्म ही ना ले तब? जब तक इस समस्या का हल नहीं मिलता एक भी लड़की इस धरती पर जन्म नहीं लेगी और ये धरती नारी विहीन हो जाएगी तब ही इन नरों को नारी की अस्मिता की अहमियत का अहसास होगा|
आज तो यह स्थिति है की पुरुषों में मर्यादा पुरुषोत्तम और नरों में नरेन्द्र भी नारी जाति का सम्मान अडिग नहीं रख पाए तो हम आप किस खेत की मूली हैं|
खैर..... जो नहीं हो सकता उसकी कल्पना करना ही अपनेराम का काम है क्यूंकि कहते हैं ना की जहाँ न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवी---------------. लीजिये कविता (पुरानी ही सही)को समझने की कोशिश कीजिये और हो सके तो समाज को बदलाव के लिए प्रेरित कीजिये|
अपने राम की पत्नी को फिल्म ज्यादा पसंद नहीं आई और उसके कारण भी बहुत ठोस रूप से उसने अपनेराम के समक्ष रखे|
१. समाज की स्थिति और अपरिवर्तनीय सोच, देखते हुए लड़कियों ने अपनी सीमा स्वयं तय करना जरूरी है| हम २२ वीं सदी की तरफ जा रहे हों पर समाज की सोच और उसका वर्ताव अभी भी १५ वीं सदी का ही है| एक बार कोई हादसा हो गया तो दोष और सज़ा हमेशा से लड़की को ही मिलेगी| “दोस्त” या “फ्रेंड” शब्द बहुत व्यापक है और किसी को दोस्त कहने के पहले सौ बार जाँच और परख की जरूरत है| ये याद रखना जरूरी है की लड़का और लड़की पहले नर और मादा हैं और प्रकृति का नियम इस रिश्ते की क्या परिभाषा करता है|
२. फिल्म का नाम “पिंक” रखने का तर्क निर्माता और निर्देशक का कुछ अलग हो सकता है पर अपनेराम की पत्नी के तर्क अकाट्य है ये उतना ही सच है| इस फिल्म में मुख्य चरित्र की कानूनी समस्या के लिए दीपक सहगल नाम का बहुश्रुत और बहुपठ वकील मिल जाता है और केस का जज भी संवेदनशील और समझदार दिखाया गया है| राजनितिक परिवार का होते हुए भी आरोपी लड़के का परिवार सीमित हस्तक्षेप करता है| वास्तव में यदि देखें तो इस तरह के केस या तो सालों चलते रहते हैं नहीं तो आउट ऑफ़ कोर्ट सेटल हो जाते हैं| राजनीतिक दबाव के कारण तो कुछ मुकदमे दर्ज ही नहीं होते| इस तरह का एक केस हमारे शहर बोकारो में आज से २० एक साल पहले हुआ था और उस समय पीड़िता के साथ बलात्कार के बाद आरोपी नहीं पकडे गए, पीड़िता लड़की कुछ समय बाद पागल हो गई और अंततः उसने आत्महत्या कर ली| मुकदमा चलता रहा पर आरोपी शायद पकडे गए या आज तक छुट्टे घूम रहे हैं हमें नहीं मालूम( हम कितने असंवेदनशील हैं इस समस्या के प्रति यही दर्शाता हुआ हमारा वर्ताव)| इस फिल्म का नाम “पिंक “ इसीलिए रखा गया क्यूंकि ये फिल्म हमारे समाज, राजनीतिक परिवेश और न्याय व्यवस्था की एक (rozy) गुलाबी छबि दिखाने का प्रयास भर है| निर्माता और निर्देशक को वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं| उन्हें सिर्फ “हरे” रंग से मतलब है “पिंक” तो ऐंवे ही कामचलाऊ है|
३. फिल्म के अंत में वकील दीपक सहगल का अंतिम वक्तव्य की जब कोई ना कहे तो उसका अर्थ ना ही होना चाहिए और उसके ना का सम्मान करना जरूरी है, आज के परिपेक्ष्य में बिलकुल गलत और अकल्पनीय है| आज के दौर में जब दबंगई और गुंडई अपने चरम पर है तब कोई भी किसीकी ना सुनना नहीं चाहता| ना कहने का मतलब अपने ऊपर मुसीबत ओढ़ लेना ही है| जब कोई जबरदस्ती पर उतर ही आये तो ना सुनने और समझने की अक्ल क्या उसमे बची रहेगी? इससे पेशतर तो ऐसी परिस्थिति में “ना” फंसना ही है| अब इस ना का मतलब समझ में आ जाये यही बेहतर|
इस तरह “पिंक” नाम की ये फिल्म बहुत पसंद तो नहीं आई पर फिर उस सुलगते प्रश्न को हवा दे गई की क्या इस समाज में नारी का अस्तित्व खतरे में है? सोचते सोचते कब सुबह हो गई अपने राम को पता ही ना चला| सुबह सूरज की पहली किरण के साथ अपनेराम की लिखी एक पुरानी कविता ही इस समस्या का समाधान बन कर सामने आई और अपने राम ने चैन की सांस ली|
इस पुरुष प्रधान समाज में यदि लड़कियां विद्रोह कर दें और विधाता ऐसा कुछ चक्कर चला दे की लड़की जन्म ही ना ले तब? जब तक इस समस्या का हल नहीं मिलता एक भी लड़की इस धरती पर जन्म नहीं लेगी और ये धरती नारी विहीन हो जाएगी तब ही इन नरों को नारी की अस्मिता की अहमियत का अहसास होगा|
आज तो यह स्थिति है की पुरुषों में मर्यादा पुरुषोत्तम और नरों में नरेन्द्र भी नारी जाति का सम्मान अडिग नहीं रख पाए तो हम आप किस खेत की मूली हैं|
खैर..... जो नहीं हो सकता उसकी कल्पना करना ही अपनेराम का काम है क्यूंकि कहते हैं ना की जहाँ न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवी---------------. लीजिये कविता (पुरानी ही सही)को समझने की कोशिश कीजिये और हो सके तो समाज को बदलाव के लिए प्रेरित कीजिये|
अजन्मा दर्द
मैं बोल रही हूँ माँI ! तेरे भीतर से, सहमी सी, डरी सी,
मैं, जिसे बड़े लाड से तू बढ़ा रही है अपनी कोख में, और कर रही है प्रतीक्षा मेरे जन्म की,
मुझे कुछ कहना है माँ, जन्मने से पहले, सुन सकेगी तू मेरी पुकार माँ !
मुझे नहीं जन्म लेना है अभी, परिस्थितियां अभी नहीं हैं ठीक
,
रोज तो दूरदर्शन औ अख़बारों में देख, सहमती है तू और सिसकियाँ भरती है मुझे भींच,
मुझे नहीं जन्म लेना है अभी, परिस्थितियां अभी नहीं हैं ठीक
,
रोज तो दूरदर्शन औ अख़बारों में देख, सहमती है तू और सिसकियाँ भरती है मुझे भींच,
प्रति पल भयाक्रांत होती है दीदी के बारे में सोच कर, जो बड़ी हो रही है दिन रात,
पंख फडफडा कर उड़ने को तैयार, गगन से ऊँची लगाने को छलांग, पर हाथ पकड़ लेती है तू जिसका हर बार,
पंख कतरने का भी तू करती है विचार, क्यूंकि तूने देखे हैं पुरुषों में भी गिद्धों के कई प्रकार,
शायद नोंच भी सही हो तूने कभी, दहलता है दिल भी तेरा ये सोच कर,
तेरी चिर्रैया का भी न नोंच लें मांस, गिद्ध कौए जो फिरते हैं आस पास,
वो तेरी आँखों से दूर होते ही अटक जाती है तेरी सांस
|
घर पड़ोस के सभी पुरुष तुझे शैतान नजर आते हैं, शक से तेरे “मेरे बापू” भी नहीं बच पाते हैं,
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घर पड़ोस के सभी पुरुष तुझे शैतान नजर आते हैं, शक से तेरे “मेरे बापू” भी नहीं बच पाते हैं,
दीदी जो भरना चाहती है मुक्त उडान, तेरी रोक टोक से विद्रोही बनी जाती है,
समझती है तुझे उस पर नहीं है भरोसा, नहीं जानती अक्सर अपने ही देते हैं धोखा |
मैं नहीं आना चाहती ऐसी अविश्वास, नफ़रत और वासना से भरी दुनिया में,
जहाँ मेरे सपने कुचले जायेंगे, वासना भरी निगाहें करेंगीं जहाँ मेरा पीछा,
आँखों की बेशर्मी से लोग करेंगे मेरा चीर हरण, हर पल, प्रति पल, जीवन होगा मेरा मरण |
वो ही शायद मेरी पीड़ा अधिक समझते हैं , भ्रूण हत्या का जो समर्थन करते हैं,
वो जानते हैं की समाज हमारा सन्मान नहीं करता, इसलिए बन जाते हैं वो हमारे विघ्नहर्ता,
हमें तिल-तिल मरने देना उन्हें गवारा नहीं, रोज हमारी इज्जत लुटे उन्हें प्यारा नहीं,
जन्म के बाद होने वाली हमारी स्थिति से हैं वो अवगत, सारी त्रासदी से करना चाहतें हैं हमें मुक्त |
हमें तिल-तिल मरने देना उन्हें गवारा नहीं, रोज हमारी इज्जत लुटे उन्हें प्यारा नहीं,
जन्म के बाद होने वाली हमारी स्थिति से हैं वो अवगत, सारी त्रासदी से करना चाहतें हैं हमें मुक्त |
मैं भी चाहती हूँ के जन्मूँ तो ऐसी व्यवस्था में, आमूल- चूल परिवर्तन हो जहाँ नारी की अवस्था में,
सिर्फ नाम के लिए जहाँ नारी का सन्मान न हो, नारी का साथ देने पर किसी पुरुष का अपमान न हो,
माँ की तरह बहन बेटी भी हो आदर की पात्र, पैर की जूती, भोग की वस्तु समझे जाने से मिले उन्हें निज़ात |
जब ऐसी व्यवस्था इस समाज में , देश में आ जाएगी, तेरी ये बेटी ख़ुशी से तेरी कोख सजाएगी,
फ़िलहाल तो ढूँढ कोई नीम हकीम, डॉक्टर हमदर्द , पैसे के लालच में ही सही जो कर दे तेरी कोख सर्द,
मैं सच कहती हूँ माँ, नहीं मैं नहीं जन्मना चाहती अभी,
क्यूंकि मैं नहीं समझ पाई तेरी सिसकियों का अर्थ, मुझे भींच जो तू भरती है कभी – कभी,
मैं सच कहती हूँ माँ, नहीं मैं नहीं जन्मना चाहती अभी, क्यूंकि नहीं जानती
मेरा अस्तित्व जो तेरे भीतर आकार है ले रहा, वो परिणाम है तेरे प्यार का या अनिर्बाधित बलात्कार का |
क्यूंकि मैं नहीं समझ पाई तेरी सिसकियों का अर्थ, मुझे भींच जो तू भरती है कभी – कभी,
मैं सच कहती हूँ माँ, नहीं मैं नहीं जन्मना चाहती अभी, क्यूंकि नहीं जानती
मेरा अस्तित्व जो तेरे भीतर आकार है ले रहा, वो परिणाम है तेरे प्यार का या अनिर्बाधित बलात्कार का |
नहीं मैं नहीं जन्मना चाहती माँ ,
सहमी सी, डरी सी,
तू सुन रही हैं न माँ,
मैं बोल रही हूँ तेरे भीतर से
सहमी सी, डरी सी,
तू सुन रही हैं न माँ,
मैं बोल रही हूँ तेरे भीतर से
- अवी घाणेकर
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