आज मातृ दिवस पर मुझे माँ की बहुत याद आ रही है, क्योंकि अब बस यादें ही रह
गईं हैं हमारे पास उसकी| आठ वर्ष पहले वो अचानक हमें छोड़ कर चली गई हम सब, मैं,
मेरा बड़ा भाई, मेरी छोटी बहन और सबसे अधिक, मेरे पिताजी, अनाथ हो गए| जाने कितनी
बातें सीखनी थी उससे, कितनी बातें करनी थीं उससे| हमें, कला, साहित्य, संगीत में रूचि की जन्मघुट्टी उसने ही दी थी| वो कभी
डींगें नहीं मारती थी पर हर विषय में उसका दखल था, और बड़ी बात यह की यदि किसी विषय
पर उसे जानकारी की कमी लगे तो उसे हासिल करने में उसे लज्जा का अनुभव नहीं होता
था| हाँ , हमसे, अपने से छोटों से भी यदि कुछ सीखने लायक हो तो वो हमेशा तैयार थी|
मेरी माँ, जिसने हमारे परिवार के लिए अपना सर्वस्व दे दिया और अहम् की एक छोटी
सी रेखा भी कभी उसके व्यवहार में नहीं दिखी| हम बच्चे, खास कर मैं, बचपन से ही
बहुत चंचल और खब्ती किस्म का रहा हूँ, मेरे ऐसे अनेक किस्से हैं जब की शायद मेरे
कारण उसे किसी और के सामने लज्जित होना पड़ा हो| आज जब याद करता हूँ तो याद नहीं
पड़ता की कभी उसने मुझे दुत्कारा हो, इस बात के लिए, सदा ही मुझे और मेरे भाई बहिन
को सराहती ही रही, संवारती ही रही मृत्यु पर्यंत|
मेरे पिताजी, माँ की मृत्यु के बाद, पिछले आठ वर्षों से अकेले ही हैं, हम हैं
तो उनके साथ परन्तु सभी अपने- अपने कार्यों में व्यस्त| सिर्फ ये देख लेना की वो
ठीक हैं, कभी उनसे बात कर लेना, उनकी जरूरतों का ख्याल रख लेना, क्या यह पर्याप्त
है ? मेरे पिताजी जो निश्चिन्त थे, स्वयं का, अपने परिवार का सारा दायित्व अपनी
पत्नी को, मेरी माँ को दे कर, आज उनकी आँखों में एक अजीब अनिश्चितता का भाव दिखता
है| क्यूँ है ये भाव उनकी आँखों में, क्या हमसे कुछ कमी रह रही है ? हमसे जो बन
पड़ता है वो हम करते ही हैं उन्हें खुश रखने के लिए पर फिर भी पता नहीं, शायद कहीं
कोई कमी रह ही जाती है|
अभी कुछ दिनों पहले मैं और मेरी पत्नी एक विवाह में सम्मिलित होने के लिए
बिलासपुर (छत्तीसगढ़) गए थे| हम मेरी पत्नी
की बुआ के घर रुके और उसी दिन मुझे मेरे
पिताजी की आँखों की उस अनिश्चितता का अर्थ समझ आ गया| मेरी पत्नी के फूफाजी और
मेरे पिताजी एक साथ सागर(म.प्र.) में रहे थे और मेरी पत्नी की बुआ और मेरी माँ
बचपन में एक ही संगीत विद्यालय में एक साथ संगीत की शिक्षा लेती थीं| फूफाजी की
जिन्दादिली और मजाहिया स्वभाव देख कर बरबस ही पिताजी की याद आ रही थी, बुआ जी को
सतत कार्यरत देख कर माँ आँखों के सामने आ गई| और मैंने देखा की फूफाजी की आँखों
में वही उत्साह, वही आनंद, वही निश्चितता थी जो मेरे पिताजी की आँखों में हुआ करती
थी| क्या था ऐसा जो फूफाजी को उतना आनंदमयी और उत्साहित रखता है| यूरेका ! यूरेका!
वो भाव था, इस उम्र में अति आवश्यक मानसिक, वैचारिक अवलम्ब का| यह विश्वास की
कोई है जिसे बेरोकटोक मैं अपने राग- प्रेम, सुख-दुःख, खीज-चिढ सब सौंप सकता हूँ,
और उसका कोई विरोध नहीं होगा|जीवन के इस पड़ाव पर, जिस पर मेरे पिताजी अभी हैं, हाँ
यहीं, उम्र के इसी मोड़ पर उन्हें जिस साथ, जिस विश्वास, जिस सहवास की जरुरत है, हम
लाख कोशिश कर लें उन्हें नहीं दे सकते|
मेरे पिताजी उनकी ८० बरस की आयु में मुझे एक छोटे से बच्चे की तरह दिखने लगें हैं, अपनी सबसे प्रिय
वस्तु खो कर लाचार, हतबल बैठा हुआ एक छोटा
सा बच्चा ! और हम अपने ही विश्व में खोये
हुए न चाहते हुए भी उनकी अनदेखी कर रहे हैं| मुझे चाहिए मेरे पिताजी की आँखों में
वही पुरानी चमक, वही मजाहिया और जिंदादिल व्यक्तित्व और उसके लिए अब मुझे कुछ करना
ही होगा| मैं माँ को तो वापस ला नहीं सकता पर उसकी कमी न खले ऐसा व्यवहार तो
पिताजी के साथ कर ही सकता हूँ| हाँ यही होगा इस मातृदिवस पर मेरी माँ को मेरा
उपहार!
१०.५.२०१३
रांची
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