Tuesday, May 14, 2013

बिजूखा

बिजूखा
मन उदास है आज, अकेला हूँ इसलिए शायद| क्या है मेरी नियति, भरा पूरा परिवार होते हुए भी मुझे ये अकेलापन क्यूँ? ऐसा लगता है की मेरा स्थान अपने परिवार में, खेत के बिजूखे (Scare crow- मेरे उन मित्रों के लिए जो अंग्रेजी के पोशिंदे और बाशिंदे हैं) की तरह है| खेत में बिजूखा कौवों को डराने के लिए लगाते हैं, जिस से खेत की फसल बची रहे| मेरा उपयोग भी उसी तरह होता है क्या, सिर्फ दुनिया को पता लगे की मेरा अस्तित्व है, बिजूखे  की तरह, फसल बचे न बचे, दुनिया को डर तो रहेगा|
 बिजूखा जिसका काम सिर्फ कौवों को डराना है, बारिश, आंधी, तूफान, कोई भी परिस्थिति हो, उसे खेत में खड़ा रहना है, अपना कर्त्तव्य करते हुए| मैं भी तो वही कर रहा हूँ, खड़ा हूँ खेत में फसल की रखवाली करते हुए, फसल अच्छी हुई तो श्रेय किसान को, ख़राब हुई तो ठीकरा मानसून के सर| बिजूखा खड़ा है खेत में, उसको कोई पूछने वाला नहीं| क्या मेरी भी यही गत है? राम जाने!
मेरा ये हाल सिर्फ परिवार तक ही सीमित नहीं, मैं एक छोटे व्यवसाय से जुड़ा हूँ वहां भी अमूमन यही स्थिति है शायद| मेरे भागीदार, कर्मचारी, सब मुझे बिजूखे की तरह ही देखते हैं, ये है तो कोवे नहीं आयेंगे| व्यवसाय अच्छा हुआ तो बरसो की साख(Goodwill - मेरे उपरोक्त मित्रों के लिये ) या कर्मचारियों का अच्छा काम, नहीं हुआ तो बाज़ार का दोष, बिजूखे को कौन पूछता है? तू अपना कर्त्तव्य करता रह|
दरअसल समस्या आती है जब मैं अपने मत व्यक्त करने लगता हूँ, असल में बिजूखे का काम बोलना तो है नहीं, और मेरा बोलना भी मेरे परिवार, मित्र, रिश्तेदार, भागीदार, कर्मचारियों आदि सभी को मेरी सीमाओं का उल्लंघन लगता है| बिजूखे तू सिर्फ एक प्रतीक की तरह खड़ा रह, तू यदि मनुष्य की तरह आचरण करेगा तो समस्या होगी ही|
खैर, जीवन के पचासवें वसंत के आस पास, मुझे आत्मदर्शन हो रहा है, ये सही भी है| अब तक तो जवानी के जोश, कमाई की चिंताएं और जीवन की अन्य आपाधापियों में आत्मचिंतन का समय ही नहीं मिला| इतने वर्षो मैं ऐवें सोचता रहा  कि इस सारे खेल के सूत्र मेरे हाथ में हैं, मैं हूँ सूत्रधार| अजीब बोझ था मेरे सर पर इस झूठे अभिमान का, कि मैं न रहूँगा तो इस खेल का पटाक्षेप हो जायेगा| पर अब पता चला की सूत्र मेरे हाथ में हैं तो, परन्तु डोर का दूसरा छोर, सूत्रधार कोई और ही है|
अच्छा है, अच्छा है, ये दंभ टूटा तो सही, आज बहुत हल्का महसूस हो रहा है, परों से भी हल्का, और खुश हूँ मैं,
चलिए कुछ तो हासिल-ए-ज़िंदगी है, बिजूखा तो बिजूखा ही सही!
मेरा अस्तित्व नकारा तो नहीं जा रहा| 

४.५.२०१३
रांची

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