Tuesday, May 14, 2013

बस ऐसे ही!


परसों हमारे शहर रांची में एक ५ वर्ष की बच्ची का बलात्कार और फिर उसकी हत्या कर दी गई, अपराधी कोई पहचान वाला ही था| अपराधी पकड़ा गया और उसे सजा भी मिलेगी परन्तु इस घटना के विरोध में आज शहर में बंद बुलाया गया है| मेरी समझ से बंद करने से समस्या का कोई ठोस परिणाम नहीं निकलेगा, ये सिर्फ अपने आक्रोश को प्रदर्शित करने का साधन भर है| हम आक्रोशित हो कर एक दिन का बंद बुला कर समझेंगे की हमारे कर्त्तव्य की इतिश्री हो गई| क्या इससे समस्या सुलझ गई? नहीं! इस से  कुछ असामाजिक तत्व(इस शब्द का अर्थ मैं कभी समझ नहीं पाया) अपने बाहुबल को प्रदर्शित कर कृतकृत्य हो गए और एक दिन में देश ने लाखो करोड़ों रुपयों का घटा सहा|  समझने की बात ये है की समस्या का समाधान बंद पुकारने में, सत्ताधारियों को कोसने या कड़े कानून बनाने में नहीं है. कानून तो बन जायेंगे, पर उनका सख्ती से पालन कौन करेगा या करवाएगा(भारत में सब कुछ करवाना पड़ता है, स्वयंभू कोई नहीं करता(| शासन या तंत्र भी इन मामलों में हतबल है, क्योंकि ये कोई कानून या विधि का मामला नहीं है, ये सामाजिक मामला है| आपके घर पड़ोस में आने जाने वाले, आपके सम्बन्धी, रिश्तेदार ही ऐसे कृत्य करने की जुर्रत करते हैं, क्या इस में शासन या सत्ता तंत्र हस्तक्षेप कर सकते हैं? मेरा मानना है की नहीं, वो अपराध के बाद सिर्फ अपराधी को पकड़ने या उसे सख्त सजा दिलाने का काम कर सकते हैं| असल जवाबदेही तो हम सब की बनती है क्योंकि इस समस्या का मूल हमारी सभ्यता में छिपा है, हमें जन्म से ही लड़का- लड़की का अंतर समझा दिया  जाता है, अरे जिस का अपने घर में ही सन्मान नहीं है उसे बाहर सन्मान की अपेक्षा कैसे हो? ये जो पुरुषवादी मानसिकता है उसे ख़त्म करना होगा| महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों को ही बीड़ा उठाना होगा, पुरुष जब तक अपने विचार तंत्र को सुचारू नहीं करता, इस समस्या का समाधान नहीं है, कितने भी कानून बना लें| दिल्ली की घटना के बाद जो आन्दोलन की बात कही गई थी उसे ठंडा होने में ५ दिन भी नहीं लगे, क्यूँ? क्योंकि उस आन्दोलन के हिस्सेदार पुरुष अपने गिरेबान में झांकने के बाद आवाज उठाने के लायक नहीं रहे| मैं नहीं कहता की इस समस्या का समाधान असंभव है, पर हाँ मुश्किल जरूर है| मुश्किल क्यूँ , क्योंकि पीढ़ियों का दंभ, अहंकार,सत्ता को त्यागने में समय तो लगेगा ही| आवश्यकता है की हमें अपने घर से ही आरम्भ करना होगा, पहले स्वयं को शुद्ध करें और फिर देखें की बूँद बूँद से सागर भरता है की नहीं(यहाँ मैं ये स्पष्ट कर दूँ की मैंने स्वयं शुद्ध होने की प्रक्रिया को अपनाये करीब १५/१६ वर्ष हो रहे है)| इस के लिए किसी जन आन्दोलन या कड़े कानून की आवश्यकता नहीं है| आंदोलित करना है तो स्वयं की सोच को, स्वयं के मन को, स्वयं के मस्तिष्क को आंदोलित करें और एक आदर्श समाज की स्थापना के लिए नींव का पत्थर स्वयं के आंगन में ही रखें|
इस समय स्वर्गीय दुष्यंत कुमार जी की कुछ पंक्तियाँ याद  आ रही हैं " इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है, नांव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है"| हाँ सच है की जर्जर समाज व्यवस्था का लहरों से टकराना अति आवश्यक है और इसके लिए पहल प्रत्येक को करनी होगी|
३०.४. २०१३
रांची 

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