दौलत
अधनींदी अलसाई आँखों के पोरों पर ,सुनहरी धुप नज़र आई है,चाँद के चेहरे पर जैसे अब, एक सूरज की परछाई है|
रात की खांसी अब भी छलके गाल के गड्ढों में,
इस सजीले मुखड़े पर, दर्द की परत बिछाई है|
करवट बदल- बदल कर बीता, रात का हर इक लम्हा,
बिस्तर की सलवटें "अवी", अब माथे पर सजाई हैं|
भोर की प्याली पी लेती, सब दर्द गुजरती रातों के,
आज मगर ये भोर भी देखो, इतने देर से आई है|
क्या सोचूं क्या याद करूँ, बस चुभन है टूटे शीशों की,
अक्सर वो भोर की प्याली, तो मैंने ही तोड़ गिराई है|
टूटे ख्वाबों के कुछ टुकडे, कुछ लोगों के चुभते फिकरे,
वो नमक आंसुओं का मेरे, कुछ रिश्ते जिन पर काई है,
कुछ भोर रात के बीच के पल, कुछ दर्द भरे मेरे नगमें,
अपनी हस्ती में तो हमने, बस दौलत यही कमाई है ||
- अवी घाणेकर
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