विरोधाभास
चाह हो भौतिक सुखों की,और सादगी जीवन में हो,
पाँव मेरे हों धरा
पर,दृष्टि हो आकाश में|
मिलन में हो शूल,विरह में खिल रहें हों फूल जब,
प्रणय की वर्षा तो हो,मन शुष्क हो मधुमास में,
दृष्टि चंचल,फिर भी प्रियतम तू हो मेरे पाश में,
क्यूँ न जाने फँस गया हूँ,इस विरोधाभास में ||१||
बंधनों से मुक्त ‘अवी’,उड़ता फिरूँ आकाश में,
प्रेम और कर्त्तव्य के सम्बन्ध भी हों पास में,
हाँ नहीं की इस डगर पर,संतुलन स्थिरता भी हो,
कर रहा अस्थिर स्वयं को,इस बेतुके प्रयास में ||२||
- अवी घाणेकर
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