भोर की आस में, अब नींद
नहीं आती,
वक्त तो गुज़र जाता है, पर
रात नहीं जाती|
यूँ तो गुमनामी के अंधेरों
में कट गई उम्रें,
आज ये रात अँधेरी,
फिर क्यूँ नहीं भाती|
देखना ख्वाब सूरज का,
है बहुत उम्दा,
मकां में मेरे मगर
रोशनी नहीं आती|
लिखे है ख़त मैंने,
अनगिनत रातों में,
चिट्ठियां मुझको मगर
किसीकी नहीं आतीं|
मैं गया वक्त हूँ न
मुझको दो तुम आवाज़,
मैं जहाँ हूँ वहां कोई
सदा नहीं आती|
ठूंठ के ठूंठ हैं,
कब गिरेंगे जाने,
अब नई कोपलें, नज़र
नहीं आतीं|
उसकी आवाज़ में थी
उसकी सूरत शामिल,
पर कोई नज़्म अब, वो
नहीं गुनगुनाती|
ये मेरा हाल है अवी,
या फिर,
तमाम शहर में कहीं,
कोयलें नहीं गातीं|
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