Tuesday, May 14, 2013

मातृदिवस

आज मातृ दिवस पर मुझे माँ की बहुत याद आ रही है, क्योंकि अब बस यादें ही रह गईं हैं हमारे पास उसकी| आठ वर्ष पहले वो अचानक हमें छोड़ कर चली गई हम सब, मैं, मेरा बड़ा भाई, मेरी छोटी बहन और सबसे अधिक, मेरे पिताजी, अनाथ हो गए| जाने कितनी बातें सीखनी थी उससे, कितनी बातें करनी थीं उससे| हमें, कला, साहित्य, संगीत  में रूचि की जन्मघुट्टी उसने ही दी थी| वो कभी डींगें नहीं मारती थी पर हर विषय में उसका दखल था, और बड़ी बात यह की यदि किसी विषय पर उसे जानकारी की कमी लगे तो उसे हासिल करने में उसे लज्जा का अनुभव नहीं होता था| हाँ , हमसे, अपने से छोटों से भी यदि कुछ सीखने लायक हो तो वो हमेशा तैयार थी|
मेरी माँ, जिसने हमारे परिवार के लिए अपना सर्वस्व दे दिया और अहम् की एक छोटी सी रेखा भी कभी उसके व्यवहार में नहीं दिखी| हम बच्चे, खास कर मैं, बचपन से ही बहुत चंचल और खब्ती किस्म का रहा हूँ, मेरे ऐसे अनेक किस्से हैं जब की शायद मेरे कारण उसे किसी और के सामने लज्जित होना पड़ा हो| आज जब याद करता हूँ तो याद नहीं पड़ता की कभी उसने मुझे दुत्कारा हो, इस बात के लिए, सदा ही मुझे और मेरे भाई बहिन को सराहती ही रही, संवारती ही रही मृत्यु पर्यंत|
मेरे पिताजी, माँ की मृत्यु के बाद, पिछले आठ वर्षों से अकेले ही हैं, हम हैं तो उनके साथ परन्तु सभी अपने- अपने कार्यों में व्यस्त| सिर्फ ये देख लेना की वो ठीक हैं, कभी उनसे बात कर लेना, उनकी जरूरतों का ख्याल रख लेना, क्या यह पर्याप्त है ? मेरे पिताजी जो निश्चिन्त थे, स्वयं का, अपने परिवार का सारा दायित्व अपनी पत्नी को, मेरी माँ को दे कर, आज उनकी आँखों में एक अजीब अनिश्चितता का भाव दिखता है| क्यूँ है ये भाव उनकी आँखों में, क्या हमसे कुछ कमी रह रही है ? हमसे जो बन पड़ता है वो हम करते ही हैं उन्हें खुश रखने के लिए पर फिर भी पता नहीं, शायद कहीं कोई कमी रह ही जाती है|
अभी कुछ दिनों पहले मैं और मेरी पत्नी एक विवाह में सम्मिलित होने के लिए बिलासपुर (छत्तीसगढ़) गए थे| हम  मेरी पत्नी की बुआ के घर  रुके और उसी दिन मुझे मेरे पिताजी की आँखों की उस अनिश्चितता का अर्थ समझ आ गया| मेरी पत्नी के फूफाजी और मेरे पिताजी एक साथ सागर(म.प्र.) में रहे थे और मेरी पत्नी की बुआ और मेरी माँ बचपन में एक ही संगीत विद्यालय में एक साथ संगीत की शिक्षा लेती थीं| फूफाजी की जिन्दादिली और मजाहिया स्वभाव देख कर बरबस ही पिताजी की याद आ रही थी, बुआ जी को सतत कार्यरत देख कर माँ आँखों के सामने आ गई| और मैंने देखा की फूफाजी की आँखों में वही उत्साह, वही आनंद, वही निश्चितता थी जो मेरे पिताजी की आँखों में हुआ करती थी| क्या था ऐसा जो फूफाजी को उतना आनंदमयी और उत्साहित रखता है| यूरेका ! यूरेका!
वो भाव था, इस उम्र में अति आवश्यक मानसिक, वैचारिक अवलम्ब का| यह विश्वास की कोई है जिसे बेरोकटोक मैं अपने राग- प्रेम, सुख-दुःख, खीज-चिढ सब सौंप सकता हूँ, और उसका कोई विरोध नहीं होगा|जीवन के इस पड़ाव पर, जिस पर मेरे पिताजी अभी हैं, हाँ यहीं, उम्र के इसी मोड़ पर उन्हें जिस साथ, जिस विश्वास, जिस सहवास की जरुरत है, हम लाख कोशिश कर लें उन्हें नहीं दे सकते|  मेरे पिताजी उनकी ८० बरस की आयु में मुझे एक छोटे से  बच्चे की तरह दिखने लगें हैं, अपनी सबसे प्रिय वस्तु खो कर लाचार, हतबल बैठा  हुआ एक छोटा सा बच्चा !  और हम अपने ही विश्व में खोये हुए न चाहते हुए भी उनकी अनदेखी कर रहे हैं| मुझे चाहिए मेरे पिताजी की आँखों में वही पुरानी चमक, वही मजाहिया और जिंदादिल व्यक्तित्व और उसके लिए अब मुझे कुछ करना ही होगा| मैं माँ को तो वापस ला नहीं सकता पर उसकी कमी न खले ऐसा व्यवहार तो पिताजी के साथ कर ही सकता हूँ| हाँ यही होगा इस मातृदिवस पर मेरी माँ को मेरा उपहार!

१०.५.२०१३
रांची

बिजूखा

बिजूखा
मन उदास है आज, अकेला हूँ इसलिए शायद| क्या है मेरी नियति, भरा पूरा परिवार होते हुए भी मुझे ये अकेलापन क्यूँ? ऐसा लगता है की मेरा स्थान अपने परिवार में, खेत के बिजूखे (Scare crow- मेरे उन मित्रों के लिए जो अंग्रेजी के पोशिंदे और बाशिंदे हैं) की तरह है| खेत में बिजूखा कौवों को डराने के लिए लगाते हैं, जिस से खेत की फसल बची रहे| मेरा उपयोग भी उसी तरह होता है क्या, सिर्फ दुनिया को पता लगे की मेरा अस्तित्व है, बिजूखे  की तरह, फसल बचे न बचे, दुनिया को डर तो रहेगा|
 बिजूखा जिसका काम सिर्फ कौवों को डराना है, बारिश, आंधी, तूफान, कोई भी परिस्थिति हो, उसे खेत में खड़ा रहना है, अपना कर्त्तव्य करते हुए| मैं भी तो वही कर रहा हूँ, खड़ा हूँ खेत में फसल की रखवाली करते हुए, फसल अच्छी हुई तो श्रेय किसान को, ख़राब हुई तो ठीकरा मानसून के सर| बिजूखा खड़ा है खेत में, उसको कोई पूछने वाला नहीं| क्या मेरी भी यही गत है? राम जाने!
मेरा ये हाल सिर्फ परिवार तक ही सीमित नहीं, मैं एक छोटे व्यवसाय से जुड़ा हूँ वहां भी अमूमन यही स्थिति है शायद| मेरे भागीदार, कर्मचारी, सब मुझे बिजूखे की तरह ही देखते हैं, ये है तो कोवे नहीं आयेंगे| व्यवसाय अच्छा हुआ तो बरसो की साख(Goodwill - मेरे उपरोक्त मित्रों के लिये ) या कर्मचारियों का अच्छा काम, नहीं हुआ तो बाज़ार का दोष, बिजूखे को कौन पूछता है? तू अपना कर्त्तव्य करता रह|
दरअसल समस्या आती है जब मैं अपने मत व्यक्त करने लगता हूँ, असल में बिजूखे का काम बोलना तो है नहीं, और मेरा बोलना भी मेरे परिवार, मित्र, रिश्तेदार, भागीदार, कर्मचारियों आदि सभी को मेरी सीमाओं का उल्लंघन लगता है| बिजूखे तू सिर्फ एक प्रतीक की तरह खड़ा रह, तू यदि मनुष्य की तरह आचरण करेगा तो समस्या होगी ही|
खैर, जीवन के पचासवें वसंत के आस पास, मुझे आत्मदर्शन हो रहा है, ये सही भी है| अब तक तो जवानी के जोश, कमाई की चिंताएं और जीवन की अन्य आपाधापियों में आत्मचिंतन का समय ही नहीं मिला| इतने वर्षो मैं ऐवें सोचता रहा  कि इस सारे खेल के सूत्र मेरे हाथ में हैं, मैं हूँ सूत्रधार| अजीब बोझ था मेरे सर पर इस झूठे अभिमान का, कि मैं न रहूँगा तो इस खेल का पटाक्षेप हो जायेगा| पर अब पता चला की सूत्र मेरे हाथ में हैं तो, परन्तु डोर का दूसरा छोर, सूत्रधार कोई और ही है|
अच्छा है, अच्छा है, ये दंभ टूटा तो सही, आज बहुत हल्का महसूस हो रहा है, परों से भी हल्का, और खुश हूँ मैं,
चलिए कुछ तो हासिल-ए-ज़िंदगी है, बिजूखा तो बिजूखा ही सही!
मेरा अस्तित्व नकारा तो नहीं जा रहा| 

४.५.२०१३
रांची

बस ऐसे ही!


परसों हमारे शहर रांची में एक ५ वर्ष की बच्ची का बलात्कार और फिर उसकी हत्या कर दी गई, अपराधी कोई पहचान वाला ही था| अपराधी पकड़ा गया और उसे सजा भी मिलेगी परन्तु इस घटना के विरोध में आज शहर में बंद बुलाया गया है| मेरी समझ से बंद करने से समस्या का कोई ठोस परिणाम नहीं निकलेगा, ये सिर्फ अपने आक्रोश को प्रदर्शित करने का साधन भर है| हम आक्रोशित हो कर एक दिन का बंद बुला कर समझेंगे की हमारे कर्त्तव्य की इतिश्री हो गई| क्या इससे समस्या सुलझ गई? नहीं! इस से  कुछ असामाजिक तत्व(इस शब्द का अर्थ मैं कभी समझ नहीं पाया) अपने बाहुबल को प्रदर्शित कर कृतकृत्य हो गए और एक दिन में देश ने लाखो करोड़ों रुपयों का घटा सहा|  समझने की बात ये है की समस्या का समाधान बंद पुकारने में, सत्ताधारियों को कोसने या कड़े कानून बनाने में नहीं है. कानून तो बन जायेंगे, पर उनका सख्ती से पालन कौन करेगा या करवाएगा(भारत में सब कुछ करवाना पड़ता है, स्वयंभू कोई नहीं करता(| शासन या तंत्र भी इन मामलों में हतबल है, क्योंकि ये कोई कानून या विधि का मामला नहीं है, ये सामाजिक मामला है| आपके घर पड़ोस में आने जाने वाले, आपके सम्बन्धी, रिश्तेदार ही ऐसे कृत्य करने की जुर्रत करते हैं, क्या इस में शासन या सत्ता तंत्र हस्तक्षेप कर सकते हैं? मेरा मानना है की नहीं, वो अपराध के बाद सिर्फ अपराधी को पकड़ने या उसे सख्त सजा दिलाने का काम कर सकते हैं| असल जवाबदेही तो हम सब की बनती है क्योंकि इस समस्या का मूल हमारी सभ्यता में छिपा है, हमें जन्म से ही लड़का- लड़की का अंतर समझा दिया  जाता है, अरे जिस का अपने घर में ही सन्मान नहीं है उसे बाहर सन्मान की अपेक्षा कैसे हो? ये जो पुरुषवादी मानसिकता है उसे ख़त्म करना होगा| महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों को ही बीड़ा उठाना होगा, पुरुष जब तक अपने विचार तंत्र को सुचारू नहीं करता, इस समस्या का समाधान नहीं है, कितने भी कानून बना लें| दिल्ली की घटना के बाद जो आन्दोलन की बात कही गई थी उसे ठंडा होने में ५ दिन भी नहीं लगे, क्यूँ? क्योंकि उस आन्दोलन के हिस्सेदार पुरुष अपने गिरेबान में झांकने के बाद आवाज उठाने के लायक नहीं रहे| मैं नहीं कहता की इस समस्या का समाधान असंभव है, पर हाँ मुश्किल जरूर है| मुश्किल क्यूँ , क्योंकि पीढ़ियों का दंभ, अहंकार,सत्ता को त्यागने में समय तो लगेगा ही| आवश्यकता है की हमें अपने घर से ही आरम्भ करना होगा, पहले स्वयं को शुद्ध करें और फिर देखें की बूँद बूँद से सागर भरता है की नहीं(यहाँ मैं ये स्पष्ट कर दूँ की मैंने स्वयं शुद्ध होने की प्रक्रिया को अपनाये करीब १५/१६ वर्ष हो रहे है)| इस के लिए किसी जन आन्दोलन या कड़े कानून की आवश्यकता नहीं है| आंदोलित करना है तो स्वयं की सोच को, स्वयं के मन को, स्वयं के मस्तिष्क को आंदोलित करें और एक आदर्श समाज की स्थापना के लिए नींव का पत्थर स्वयं के आंगन में ही रखें|
इस समय स्वर्गीय दुष्यंत कुमार जी की कुछ पंक्तियाँ याद  आ रही हैं " इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है, नांव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है"| हाँ सच है की जर्जर समाज व्यवस्था का लहरों से टकराना अति आवश्यक है और इसके लिए पहल प्रत्येक को करनी होगी|
३०.४. २०१३
रांची