Wednesday, January 9, 2013

अजन्मा दर्द

मैं बोल रही हूँ माँI ! तेरे भीतर से,सहमी सी, डरी सी,

मैं, जिसे बड़े लाड से तू बढ़ा रही है अपनी कोख में, और कर रही है प्रतीक्षा मेरे जन्म कीI:

मुझे कुछ कहना है माँ, जन्मने से पहले, सुन सकेगी तू मेरी पुकार माँ.

मुझे नहीं जन्म लेना है अभी, परिस्थितियां अभी नहीं हैं ठीक,

रोज तो दूरदर्शन औ अख़बारों में देख, सहमती है तू और सिसकियाँ भरती है मुझे भींच,

प्रति पल भयाक्रांत होती है दीदी के बारे में सोच कर, जो बड़ी हो रही है दिन रात,

पंख फडफडा कर उड़ने को तैयार, गगन से ऊँची लगाने को छलांग,

पर हाँथ पकड़ लेती है तू जिसका हर बार:

पंख कतरने का भी तू कराती है विचार, क्यूंकि तूने देखे हैं पुरुषों में भी गिद्धों के कई प्रकार,

शायद नोंच भी सही हो तूने कभी, दहलता है दिल भी तेरा ये सोच कर,

तेरी चिर्रैया का भी न नोंच लें मांस, गिद्ध कौएजो फिरते हैं आस पास,

वो तेरी आँखों से दूर होते ही अटक जाती है तेरी सांस:

घर पड़ोस के सभी पुरुष तुझे शैतान नजर आते हैं, शक से तेरे मेरे बापू भी नहीं बच पाते हैं.

दीदी जो भरना चाहती है मुक्त उडान, तेरी रोक टोक से विद्रोही बनी जाती है,

समझती है तुझे उस पर नहीं है भरोसा, नहीं जानती अक्सर अपने ही देते हैं धोखा.

मैं नहीं आना चाहती ऐसी अविश्वास,नफ़रत और वासना से भरी दुनिया में.

जहाँ मेरे सपने कुचले जायेंगे, वासना भरी निगाहें करेंगीं जहाँ मेरा पीछा,

आँखों की बेशर्मी से लोग करेंगे मेरा चीर हरण, हर पल प्रति पल जीवन होगा मेरा मरण.

वो ही शायद मेरी पीड़ा अधिक समझते हैं , भ्रूण हत्या का जो समर्थन करते हैं,

वो जानते हैं की समाज हमारा सन्मान नहीं करता, इसलिए बन जाते हैं वो हमारे विघ्नकर्ता,

हमें तिल-तिल मरने देना उन्हें गवारा नहीं, रोज हमारी इज्जत लुटे उन्हें प्यारा नहीं,

जन्म के बाद होने वाली हमारी स्थिति से हैं वो अवगत, सारी त्रासदी से करना चाहतें हैं हमें मुक्त


 

मैं भी चाहती हूँ के जन्मूँ तो ऐसी व्यवस्था में, आमूल- चूल परिवर्तन हो जहाँ नारी की अवस्था में,

सिर्फ नाम के लिए जहाँ नारी का सन्मान न हो, नारी का साथ देने पर किसी पुरुष का अपमान न हो,

माँ की तरह बहन बेटी भी हो आदर की पात्र, पैर की जूती, भोग की वस्तु समझे जाने से मिले उन्हें निज़ात.

जब ऐसी व्यवस्था इस समाज में , देश में आ जाएगी, तेरी ये बेटी ख़ुशी से तेरी कोख सजाएगी,

फ़िलहाल तो ढूँढ कोई नीम हकीम, डॉक्टर हमदर्द, पैसे के लालच में ही सही जो कर दे तेरी कोख सर्द.,

मैं सच कहती हूँ माँ, नहीं मैं नहीं जन्मना चाहती अभी,

क्यूंकि मैं नहीं समझ पाई तेरी सिसकियों का अर्थ, मुझे भींच जो तू भरती है कभी- कभी.

मैं सच कहती हूँ माँ, नहीं मैं नहीं जन्मना चाहती अभी, क्यूंकि नहीं जानती

मेरा अस्तित्व जो तेरे भीतर आकार है ले रहा,

वो परिणाम है तुम्हारे प्यार का या अनिर्बाधित बलात्कार का.

नहीं मैं नहीं जन्मना चाहती माँ ,

सहमी सी, डरी सी,

तू सुन रही हैं न माँ,

मैं बोल रही हूँ तेरे भीतर से.


 

    

5 comments:

Unknown said...

हाल ही में नई दिल्ली की सडकों पर जो एक शर्मनाक हादसा हुआ, उस पर कई दिनों से मंथन चल रहा था और मंथन के बाद यह विष या अमृत जो भी आप समझें उभर कर सामने आया. इस कविता ( यदि आप इसे कविता कहें तो) को जन्म तो मैंने दिया है परन्तु इसे बड़ा किया है मेरी प्यारी बहन पद्मजा ने. उसे शत शत धन्यवाद और आशीष
आशा है आपको झकझोरने का कार्य करेगी. ये हमारी छोटी सी कोशिश इस मृत समाज को जीवित् करने की.

A girl in no one said...

dhanyawaad avi,
Tumhare jaise bhaaee yadi bharat ki saari bahno ko mil jaye to is guhaar ki jaroorat hi na rahegi.
Tumne jo dharti (base)dee thi mujhe wo itani sollid thi ki (kavita)thought provoking banani hi thi.

Unknown said...

Tumane Ek Patthar tabiyat se uchhal to diya hi hai,ab aansama me soorakh bhi jaroor hoga,barasegi aag ab jaljalaa banakar,Tamas jalkar ke phir Ujala hoga

Asha Joglekar said...

सच मे ही अजन्मा दर्द .... । डरने से काम नही चलेगा ये विरोध की आवाज़ ौर जोर से उठानी होगी कि थर्रा जाये ये दरिन्दे . घर से शुरुआत करनी होगी । घर में माँ बहनों के साथ सम्मान से आदर से व्यवहार करना होगा । बेटों को राजकुमार और लडकियों को नोकरानी समझने से नही होगा कुछ ।

Unknown said...

अवि दादा, आपने दर्पण दिखा दिया । आशु आत्या ने सही कहा है। हम सबको यह सवाल खुद से करना है कि क्या हम अपने बेटे-बेटियों से वाकई समान व्यवहार करते हैं ? कहीं हम ही अपनी बेटियों को कमज़ोर और बेटों को जानवर तो नहीं बना रहे ? सही शिक्षा और दिशा देने में भूल हमारी ही है। समाज की परिस्थिति ठीक नहीं ...... लेकिन समाज तो हमसे ही है ! अगर यह परिस्थिति कबूल नहीं तो बदलना हमें ही पड़ेगा !