Saturday, February 6, 2016

उम्मीद

भोर की आस में, अब नींद नहीं आती,
वक्त तो गुज़र जाता है, पर रात नहीं जाती|

यूँ तो गुमनामी के अंधेरों में कट गई उम्रें,
आज ये रात अँधेरी, फिर क्यूँ नहीं भाती|

देखना ख्वाब सूरज का,  है बहुत उम्दा,
मकां में मेरे मगर रोशनी नहीं आती|

लिखे है ख़त मैंने, अनगिनत रातों में,
चिट्ठियां मुझको मगर किसीकी नहीं आतीं|

मैं गया वक्त हूँ न मुझको दो तुम आवाज़,
मैं जहाँ हूँ वहां कोई सदा नहीं आती|

ठूंठ के ठूंठ हैं, कब गिरेंगे जाने,
अब नई कोपलें, नज़र नहीं आतीं|

उसकी आवाज़ में थी उसकी सूरत शामिल,
पर कोई नज़्म अब, वो नहीं गुनगुनाती|

ये मेरा हाल है अवी, या फिर,
तमाम शहर में कहीं, कोयलें नहीं गातीं|