Wednesday, February 18, 2015

जब आवे संतोष धन सब धन धूरी समान



संतोषम परमम् सुखं, ये भारतीय संस्कृति का घोष वाक्य रहा है | जो भी मिला है उसमे राजी रहो और खुश रहो| वक्त से पहले और किस्मत से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता| आज लेकिन परिस्थितियां बदल गईं हैं|
सहनशीलता और संतोष ! ये शब्द अब हमारे शब्दकोष में नहीं है, कुछ वर्ष पहले तक तो थे, अचानक गायब हो गये| भौतिकता की आंधी बहा ले गयी शायद| आज हम सब लगे पड़े हैं पैसे कमाने की होड़ में और हमारे मापदंड भी पैसे के उतार चढाव के साथ बदलते रहते हैं| किसी की कार्य कुशलता, उसका अच्छा व्यवहार, उसका अल्पसंतोषी होना कोई मायने नहीं रखता हमारे लिए, उसके जेब में कितने पैसे हैं, फिर कमाने का तरीका कुछ भी हो,बस इसीसे उसका सन्मान जुड़ा हुआ है|
हर किसी को जल्दी है शिखर पर पहुँचने की,ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाने की, और यहीं कहीं सहन करने की शक्ति और संतोष समाप्त हो गया है| मुझे कोई एक वस्तु विशेष चाहिए तो बस चाहिए, उसके लिए कुछ भी करना पड़े तो भी| रोज ही ऐसे समाचार अख़बारों में छपते हैं सरकारी कर्मचारी या अफसर के यहाँ से करोड़ों की सम्पति मिली, सरकारी योजनाओं में घोटाले कभी कोल गेट तो कभी २जी स्पेक्ट्रम,माता पिता की डांट से गुस्सा हो कर बेटे/बेटी ने की आत्महत्या,पति ने मामूली झगड़े में पत्नी की हत्या की, किसी ने राजनेताओं पर फब्ती कसी तो फतवे निकल गए, खाने का बिल होटल वाले ने माँगा तो उसकी हत्या हो गई| अरे ये सब क्या है? क्यूँ हो रहा है ये सब?
मुझे तो इसके मूल में असहनशीलता और असंतोष ही दिखाई देता है|
सहनशीलता की बात करें तो, हम सहन ही नहीं कर पाते दूसरे के किसी अधिकार को| हम सम्वाद की जगह कृति करने को तत्पर रहते हैं| एक छोटा उदाहरण देखें की, हमारी कार या मोटरसाइकिल से कोई आगे निकल गया, अरे कैसे निकल गया? उसकी तो...@#$%@…. और बस हम लग जाते हैं कोशिश में उससे आगे निकलने की|  
सहन करने की आदत छूटती है अहंकार के आने से और अहंकार आता है बिना कष्ट के कमाए हुए पैसों के साथ| पैसे के बल पर कुछ भी कर सकने की परम्परा चल पड़ी है| मैं पैसे के बल पर कुछ भी कर सकता हूँ तो किसी दूसरे की बात क्यूँ सुनूँ|
आज राजनैतिक लोग सबसे अधिक असहनशील हो गए हैं| अजी वे स्वयं को सर्वोच्च मानते हैं और उन्हें ऐसा अहसास देने के लिए हम आप, जैसे उनके अधिकार क्षेत्र का फायदा उठाने के लिए तत्पर, लोग ही जिम्मेदार हैं| हर राजनैतिक व्यक्तित्व की एक अलग सेना बन जाती है, उसके आस पास विचरने वाले कुछ जीव, उसके राजनैतिक अधिकारों का उपयोग कर के सामान्य जनता पर अपना रौब गांठते हैं| आप ने कुछ कह दिया जो उन्हें अच्छा नहीं लगा, बस जी आप का जीना हो गया दूभर| हम जनता ये भूल बैठे है की हम हैं, इसलिए राजनेता आज सर्वोच्च बन गए हैं| हम उन्हें चुनते हैं और अधिकार देते हैं, बताइए अधिकार देने वाला बड़ा या पाने वाला? हम क्यों नहीं ऐसी व्यवस्था कर सकते की यदि अधिकारों का दुरूपयोग हो तो अधिकार छीने भी जा सकें और उसमे समय का बंधन न हो| आज चुनी हुई सरकारें गिर जाएँ तो कुछ अवसरवादी घटक मिल कर सरकार बना लेते हैं और राज्य या राष्ट्र को दीमक की तरह खोखला करने में लग जाते हैं| जनता यानि हम बस हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं, की हम क्या कर सकते हैं? अजी हम ही कर सकते हैं| व्यवस्था में बदलाव की जरुरत है, ऐसी अवसरवादी सरकार का अस्तित्व मानने के लिए हमें बाध्य नहीं कर सकता कोई| हमें अपने अधिकारों का बोध होना जरुरी है| प्रजा तंत्र में प्रजा अर्थात जनता सर्वोच्च है, उससे ऊपर कोई नहीं| यहाँ हम आँखों पर पट्टी बांध कर, कानों को बंद कर और मुंह ढांप कर, हमने ही दिए हुए अधिकारों से डर कर चुपचाप बैठ जाते हैं और होने देते हैं मनमानी कुछ चंद लोगों की| या, शायद उस बहती गंगा में हाथ धोने का अवसर खोजते हैं इसलिए चुप रहते हैं| अधिकारों का ऐसा दुरूपयोग ही अंहकार की जड़ है और यही अंहकार मनुष्य को असहनशील बनता है|
कुछ सालों पहले एक फिल्म जाने भी दो यारों देखी थी, उसमे एक दृश्य में महाभारत हो रहा है| दुर्योधन बने ओम पुरी द्रौपदी को खींच ले जा रहे हैं और सहदेव बना कलाकार उन्हें रोक रहा है भैया द्रौपदी को तुम मेरी लाश पर से ही ले जा सकते होओम पुरी गदा उठा कर वहीँ सहदेव का वध कर देते हैं और द्रौपदी को ले जाते हैं| आज बिलकुल यही स्थिति है, हम कुछ सुनना ही नहीं चाहते, कोई रोकटोक, रूकावट हमें सहन ही नहीं होती|
यही कुछ संतोष के साथ भी हुआ है, हम इतने लालची हो गए हैं की हमारे पांव से चौगुनी चादर की आकांक्षा करते हैं| इस सब का कारण भी भौतिकता की आंधी और पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण ही है| हमारी फ़िल्में, टेलिविज़न,संचार माध्यम हर पल इस लालच को बढ़ावा दे रहे हैं| हम ये भी देखते हैं की राजनैतिक लोग, सरकारी अफसरान आदि किस शान से जीते हैं, उन्हें किसी महंगाई का कोई असर नहीं होता| सोचने की बात ये है की क्या कोई सरकारी वेतन या भत्तों पर ऐसा राजसी जीवन जी सकता है? अजी, हम मियां बीबी रात दिन मेहनत कर रहे हैं फिर भी उस जीवन का स्वप्न भी देखना मुमकिन नहीं फिर कोई एक ही कमानेवाला कैसे इस तरह रह सकता है? इसका विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है क्यूंकि उत्तर सभी सुधि पाठकों को मालूम है| ये बात यहाँ करने का प्रयोजन यह कि इस तरह की घटनाएँ देख सुन कर हमें भी अपनी परिस्थिति से असंतोष होने लगता है और हम भी इस भेडचाल में शामिल होने को तत्पर हो जाते हैं| उसी पल हमारी अवनति का आरंभ हो जाता है| मुझे लगता है की समस्या का समाधान सिर्फ यही है की व्यव्हार और विचार में सहनशीलता और संतोष का समावेश करना होगा| हम जो हैं, जैसे हैं उस परिस्थिति को हमें स्वीकारना होगा| मेहनत से, सिर्फ मेहनत से , जो मिले उसमे संतोष करना होगा|
हम जिस अवनति की ओर जा रहे हैं उसका सबसे बड़ा कारण ये असहनशीलता और असंतोष ही है| हमें अपनी आदतें बदलनी होंगी| मैं तो आज से ही कोशिश करता हूँ, और आप ?